Friday, January 14, 2011


ताली तो दोनो हाथों से बजेगी !


रजाई में दुबके बैठे मुसद्दी भाई अखबार पर नजर गड़ाए लगातार सिर हिलाए जा रहे थे. मैं समझ गया कि भाई किसी खबर को पढ़ कर व्याकुल हुए जा रहे हैं. मैंने कहा, भाई क्या बात है? अमन चैन तो है. कहने लगे, अमां तुम भी सोचो उस मुल्क की हालत जहां अदालत को राजधानी की गंदगी साफ करने के लिए कहना पड़े. मुझे नहीं पता कि दिल्ली नगर निगम को कैसा फील हो रहा है, पर यार यकीन मानो मैं तो बहुत शर्मिन्दा हूं. भाई खिसक कर नीचे चली आ रही अपनी ऐनक को लगातार उपर किये जा रहे थे. मैं समझ गया भाई ने मसले को दिल से लगा लिया है. मैंने कहा, कुछ दूसरी बात करें? किसी पॉजिटिव चीज पर डिस्कशन हो तो अच्छा लगता है. मैं बात खत्म करता, उसके पहले ही वो 'हल्ला बोलÓ वाली अपनी खास अदा में आ गये. सब जानते हैं कि भाई का ब्लड प्रेशर जब हाई होता है तो वे अपनी बातों के बीच में अंग्रेजी ठोंकने लगते हैं. डोंट टेल मी! दरअसल ये तुम्हारी अकेले की नहीं, ये इस पूरे सो कॉल्ड नेक्स्ट जेन की प्रॉब्लम है. अरे भइया, काहे का पाजिटिव और काहे का निगेटिव. बरखुरदार, निगेटिविटी में भी पॉजिटिविटी की जिन्स मिलती है. उसे देखने वाली निगाहें होनी चाहिए.अगरचे मैं देश की राजधानी के गंदे रहने को लेकर फिक्र करूं तो एम आई रॉन्ग? जानते हो प्रॉब्लम क्या है? दरअसल हमने गंदगी को अपनी जिंदगी के साथ इतना आत्मसात कर लिया है अब वो समस्या लगती ही नहीं. कूड़ा करकट है तो है. नो प्रॉब्लम. नाबदान बह रहा है तो बहे. एंक्रोचमेंट है तो है. भाई लगातार बोले चले जा रहे थे. अब तुम्हीं बताओ मेरे दोस्त कि क्या इन खामियों को दुरुस्त करने की बात में कहीं निगेटिविटी नजर आ रही है? जानते हो आजकल लोग गूंगे हो गये हैं. समस्याओं पर बोलना नहीं चाहते. हकीकत में यही निगेटिविटी है. कहो तो बोलेंगे कि सब सिस्टम की वजह से है. मेरी अपनी पर्सनल थिंकिंग है कि यह सोचना ही नकारात्मकता है. लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि मैं व्यवस्था को चलाने वाले तंत्र को कोई क्लीन चिट दे रहा हूं. रिमाइंडर दर रिमाइंडर के बाद काम करने वाले अपने इंडियन सिस्टम की अपनी एक खास स्टाइल है. उसका अपना एक अलग कैरेक्टर है. 'जब जब धर्म की हानि होगी तब तब मैं अवतार लूंगाÓ की तरह कोर्ट की फटकार पर दो चार दिन तो सब ठीक चलता है लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात. ये कहते हुए मुसद्दी भाई थोड़ा रुके तो मैंने भी जड़ दी. भाई सारी सिचुएशन के लिए क्या सिस्टम ही दोषी है? नो माई डियर फ्रेंड, नो. यही तो मेरा कहना है कि हालात के लिए तंत्र अकेला जिम्मेदार नहीं है. ये जो पब्लिक है ना, वो तमाम मसलों की पोषक है. अगर कहीं गंदगी है तो सवाल है कि उसे वहां कौन फेंक रहा है? नो पार्किंग जोन में गाड़ी खड़ी है तो किसकी है? कोई क्राइम इंसीडेंट होने पर लोग कन्नी काट कर निकल लेते हैं. रोड एक्सीडेंट में मरने वाले पर हमें अफसोस कम और उससे लगी जाम की वजह से ऑफिस पहुंचने में हो रही देर पर खिजलाहट ज्यादा होता है. सर्द रात में हम किसी की खुद से मदद करने के बजाय अलाव न सुलगाये जाने के लिए नगर निगम को कोसते हैं. मेरे दोस्त, ये सब हमारी थिंकिंग के निगेटिव एलीमेंट्स हैं.भाई के उपदेशात्मक भाषण को सुन बोर होते हुए मैंने पूछ लिया, अच्छा तो हालात को ठीक करने का आप ही कोई फार्मूला बताइये. लम्बी सांस लेकर भाई ने ऐनक के अंदर से मुझे घूरते हुए देखा और कहा, हर ताले की कुंजी होती है. इसकी भी है. हम सीविक्स पढ़ते तो हैं पर हमारे अदंर सिविक सेंस नहीं है? अब सामने वाले बाबू की मम्मी को ही लो. ग्रेजुएट हैं. बालकनी से ही एक पसेरी मटर का छिलका सड़क पर फेंक देंगी. इसके पीछे उनकी सोच होती है कि पूरी कॉलोनी को खबर रहे कि इस महंगाई में भी उनके यहां मटर चूड़ा खाया जा रहा है. अरे हां, प्याज का छिलका तो वे अपने गेट पर कुछ इस तरह रखती हैं कि चाहे जितनी हवा चलवा लो वो टस से मस नहीं होंगे. बिल्कुल किसी वफदार कुत्ते की तरह. अपना स्टेटस मेंटेन रखने के लिए पूरी कॉलोनी में गंदगी फैलाने से उन्हें गुरेज नहीं है. भाई कुछ झेंपते हुए बोले, जानते हो मैं रोज यह सोच के बालकनी में पहले से खड़ा रहता हूं कि आज उसे टोकूंगा जरूर. पर क्या बताऊं, मि_ू की अम्मा ने इसका 'कुछ औरÓ ही मतलब निकाल लिया. दिल के अरमा, यूं ही दबे रह गये. भाई को इमोशनल होते देख मैंने कहा, अरे हां! फार्मूला बताइये ना. धीर गंभीर आवाज में बाले, यार इतनी देर से क्या बता रहा था. यही ना, कि किसी को दोष देने से पहले अच्छा हो कि हम सिविक सेंस सीखें और उसे अच्छे से बरतें. जिस दिन हम यह समझ लेंगे कि ताली दोनों हाथों से ही बजती है, उस दिन इस पूरी सोसायटी का भला हो जाएगा. अपने में खोये भाई का चेहरा सुर्ख हुआ जा रहा था.

Tuesday, December 21, 2010



अवधूता युगन युगन

हम योगी...



घर की दहलीज पर जीर्णशीर्ण साइकिल को झाड़ते पोंछते मुसद्दी भाई बड़े तन्मय भाव से निर्गुन गा रहे थे. अवधूता युगन युगन हम योगी, आवै ना जाये मिटै ना कबहूं, सबद अनाहत भोगी. वे अपने में इतने मगन थे कि उन्हें मेरे आने की आहट तक नहीं लगी. मैंने कहा, भाई क्या बात है? बहुत रूहानी हुए जा रहे हैं? अचानक उनके हाथ थम गये. ऐनक नाक पर चढ़ायी. फिर एक लम्बी सांस ली. बोले, इस फानी दुनिया में दिल लगाने के लिए आखिर रखा क्या है मेरे भाई? मैं समझ गया था, कहीं गहरी चोट खा बैठे हैं. मैंने कहा, भाई आप ठीक कह रहे हैं पर यह फानी दुनिया भी है बड़ी रंगीन. किसिम किसिम के लोग, किसिम किसिम की बातें. यू शूड एंजॉय ऑल दीस थिंग्स. सोच में स्प्रीचुएलिटी होना अच्छी बात है पर दुनियावी जिंदगी में, वह भी आज के दौर में उस पर अमल करना बड़ा मुश्किल होता है भाई. इतना सुनते ही वो थोड़ा जज्बाती हो गये. कहा, दोस्त दौर को आज और कल के खांचे में बांट कर दुनिया को अपने चश्मे से देखने का तुम लोगों का यह तरीका बड़ा अच्छा है. चित भी मेरी पट भी मेरी. मैंने कहा, छोड़ो भाई इस पर फिर कभी और बहस होगी. पर साठे में पाठा वाली ये बात मुझे कुछ हजम नहीं हो रही है. मैंने बाबा आदम के जमाने की साइकिल और उनकी अपनी काया की तरफ इशारा किया. भाई अपनी स्टाइल में मुस्कुराए. कहने लगे, बच्चा तुम्हारी साइंस चाहे जितनी तरक्की कर ले लौटना हमें पुराने वक्त में ही है.मैं भी ठहरा एक कुतर्की. बोला भाई, आप हमेशा कुछ अलग ही राग गाते हो. तमाम आटो मोबाइल कम्पनीज हर रोज एक से एक नये मॉडल लॉन्च कर रही है. उसमें से कोई एक सेलेक्ट करने के बजाय आप साइकिल पोछ रहे हैं. चुपचाप मेरी बातों को सुन रहे मुसद्दी भाई अचानक तुनक गये. गाड़ी तो मैं आज ले लूं पर मुआ पेट्रोल कहां से लाऊंगा. दोस्त चीजें खरीदना आसान है पर उसका और उसके हिसाब से खुद को मेंटेन रखना सबके बस में नहीं है. रही बात पेट्रोल की, ये भी कुछ अजीब शै है. पहले लोग 'तेल देखो, तेल की धार देखोÓ को मुहावरे में सुनते थे. लेकिन अब ये चंद जुमले एक कॉमन मैन की जिंदगी में कुछ इस तरह से रच बस गये हैं कि लोग इसे फ्रेज में इस्तेमाल करना ही भूल गये. तुम्हें बतायें बरखुरदार कि ये जो पेट्रोल है ना, वो गरीब की बेटी की तरह हर दिन बढ़ती जाती है. उसके बढऩे की गति भी कुछ इस कदर है कि लगता है कुछ दिनों बाद लोग तस्वीरों में ही डीजल और पेट्रोल की धार देख सकेंगे. मुसद्दी भाई आदत के मुताबिक बोले चले जा रहे थे. तुमने गाड़ी की बात की है ना. चलो मैं तुम्हे एक किस्सा सुनाता हूं. अभी कल ही पेट्रोल पम्प पर एक नौजवान एक ब्रान्ड न्यू बाइक पर सवार हो कर कुछ इस तरह पहुंचा कि सबकी निगाहें उसे ही घूरने लगी. मैंने भी भरपूर निगाह से उसे देखा. तभी किसी ने उससे पूछ लिया, अमां कितने में पड़ी यह ...रिश्मा? नौजवान ने ऐंठ कर जवाब दिया 80 हजार की. एसेसिरीज अलग से. इसके साथ ही काना फंूसी होने लगी. अरे यार, दस बीस और मिला कर लखटकिया ले लेते. जितने लोग, उतने तरह की बात. अब तुम्हें क्या बताएं मेरे भाई उस नौजवान ने अपनी ...रिश्मा की सबके बीच में नाक कटवा दी. जानते हो उस 80 हजारा गाड़ी में उसने पेट्रोल कितने का भरवाया? सिर्फ 20 रूपए का! अब तुम ही बताओ कि इससे क्या साबित होता है, यही ना गाड़ी तो आप एक बार किसी तरह खरीद लोगे लेकिन फ्यूल को अपने बजट के समीकरण में फिट करना हर किसी के बस में नहीं है.देर से भाई की बातें सुनता हुआ मैं भी उकता रहा था. बोला, प्राइज हाइक के साथ इनकम भी तो बढ़ी है? भाई फट पड़े, क्या बकवास कर रहे हो. ले आओ कैलकुलेटर और कर लो हिसाब किताब. पिछले दस सालों में जिन्सों के दाम जितने बढ़े उनकी तुलना आमदनी के साथ कर लो फिर बात करना. तमाम चीजों के रेट घटने बढऩे का असर किसी पर पड़ता है तो किसी पर नहीं. लेकिन पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ते ही अच्छे अच्छों का कद घटने लगता है. बेटा मैंने भी थोड़ा बहुत कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ा है, अगर गलत कह रहा हूं तो बताओ? चलो अब इस साइकिल के दिन बहुरने का राज तुम्हें बता ही देते हैं. मैंने सोचा है कल से मिट्ठू की अम्मा को पीछे बैठा कर टहलाया घुमाया करूंगा. कटीली मुस्कान फेंक कर बोले, जानते हो इससे एक तो यह होगा कि थोड़ी सेविंग हो जाएगी तो दूसरे फ्लैश बैक से बीते हुए दिन याद कर हम भी थोड़ा रूमानी हो जाएंगे.मैंने देखा, भाई कहीं दूर हसीन ख्वाबों में खोये हुए गा रहे थे ... सभी ठौर जमात हमरी, सब ही ठौर पर मेला. हम सब माय, सब है हम माय, हम है बहुरी अकेला. हम ही सिद्ध, समाधि हम ही हम मौनी हम बोले. रूप सरूप अरूप दिखा के हम ही हम तो खेले. कहे कबीर सुनो भाई साधो नाही न कोई इच्छा, अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं, खेलूं सहज स्वेच्छा.


सचिन, तुझे सलाम !


उसके चेहरे की मासूमियत देख कोई नहीं कह सकता कि ये बंदा तीस पार की उम्र में चल रहा है. हिन्दी हो या इंग्लिश, लैंग्वेज पर उसकी जबर्दस्त कमांड को देख शायद आप समझेंगे कि वो किसी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर है पर बहुत कम लोगों को पता है कि वो ग्रेजुएट भी नहीं है. उसकी स्टाइलिश वियरिंग्स या बॉडी लैंग्वेज देख कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि सामने वाला एक जमाने में किसी मिडिल क्लास फैमिली को बिलॉन्ग करता था. फैमिली कहने के साथ याद आया अपनी वाइफ के साथ उसकी केमेस्ट्री इतनी बेहतरीन है कि आप को एहसास ही नहीं होगा कि वो अपनी बेटर हाफ से तकरीबन पांच साल छोटे हैं. दोनों का मैच्योर बिहेवियर इस बात की तस्दीक करता है कि वे अपनी सोशल रिस्पॉन्सबिलिटीज को लेकर कितने कमिटेड हैं. ये सब उनकी जिदंगी का एक हिस्सा है. जहां फीलिंग्स हैं, सेंटिमेंट्स हैं और है हम्बलनेस.उनकी लाइफ का एक अदर साइड है जिसमें सिर्फ और सिर्फ डेटाज हैं. मिनट दर मिनट का हिसाब है. घंटे से बढ़ते हुए दिन में, फिर साल में और फिर डिकेड््स में तब्दील होते इन डेटाज को रिकॉर्ड बुक समेट नहीं पा रहे हैं. आज उस शख्स के बारे में इतना सब कुछ लिखे जाने की वजह भी ये डेटाज ही हैं. उनका कोई हिसाब किताब दस बीस में नहीं होता, सैकड़े में होता है. इस सैकड़े का लेखा जोखा भी वो अब हाफ सेंचुरीज में करने लगे हैं. उम्र के एक खास पड़ाव पर आने के बाद जहां लोग टेन टू फाइव की ड्यूटी करना पसंद करते हों 11 लोगों से ये आदमी मैदान पर कई कई घंटे अकेले जूझता रहता है. जाने कितने हजार शॉर्ट पिच, बीमर और बाउंसर जैसे मिसाइल्स झेल चुके इस बंदे का जिस्म भी अब लगता है कि अग्नि पिंड बन चुका है. उसकी इन्हीं सब खासियतों को देख लोग उन्हें भगवान कहते हैं पर विनम्रता की यह प्रतिमूर्ति नीली छतरी वाले का शुक्राना अदा करता नहीं अघाता. क्या हमें बताने की जरूरत है कि वो है कौन? ऐ सचिन तेन्दुलकर सेंचुरीज की हाफ सेंचुरी पर यह धरा तुम्हे झुक कर सलाम करती है.

Saturday, October 2, 2010


O' my soul
If a thousand enemies are intent on my demise
With you as my friend, fear won't arise.
I'm alive with the hope of union with thee
Every moment I fear death, otherwise.
Breath by breath, your scented breeze I must inhale
Moment by moment, from sorrows exhale my cries.
Only dreaming of you, go to sleep my two eyes
Patiently longing for thee, my heart to itself lies.
Don't pull away your rein when you cut me with your sword
My head is my shield, while my hand your saddle-strap ties.
Where can we see your face just as you are, true and pure?
Each based on his own grasp can realize.
Indigent Hafiz is the apple of people's eyes
At your door, prostrated, your vision espies.
Hafiz Shirazi

Monday, September 27, 2010


किया इरादा तुझे भुलाने का ...


किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज्र ही कोई मगर ठिकाने का
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
ये आंख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का
वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का
ज़मीं पे किस लिए ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

- शहरयार

Wednesday, August 4, 2010

फकीर बन कर तुम उनके दर पर

फकीर बन कर तुम उनके दर पर हजार धुनि रमा के बैठो
जबीं के लिक्खे को क्या करोगे जबीं का लिक्खा मिटा के देखो
ऐ उनकी महफिल में आने वालों ऐ सूदो सौदा बताने वालों
जो उनकी महफिल में आ के बैठो तो, सारी दुनिया भुला के बैठो
बहुत जताते हो चाह हमसे, मगर करोगे निबाह हमसे
जरा मिलाओ निगाह हमसे, हमारे पहलू में आके बैठो
जुनूं पुराना है आशिकों का जो यह बहाना है आशिकों का
वो इक ठिकाना है आशिकों का हुज़ूर जंगल में जा के बैठो
हमें दिखाओ न जर्द चेहरा लिए यह वहशत की गर्द चेहरा
रहेगा तस्वीर-ए-दर्द चेहरा जो रोग ऐसे लगा के बैठो
जनाब-ए-इंशा ये आशिकी है जनाब-ए-इंशा ये जिंदगी है
जनाब-ए-इंशा जो है यही है न इससे दामन छुड़ा के बैठो
इब्ने इंशा

Tuesday, August 3, 2010


वारिस का इंतजार

मुंशी प्रेमचंद के वंशजों को नहीं है विरासत की
फिक्र
सूना है स्मारक स्थल और वीरान पड़ा है धनपत राय का घर


जिसे सुन कर आती है शर्म....


कथा सम्राट की थाती को संजोने में वंशजों ने कभी नहीं दिखायी दिलचस्पी.
1956 में दिल्ली जा कर बसे तो फिर कभी लौट कर नहीं आए.
मुंशी जी के पौत्र आखिरी बार पांच साल पहले बनारस आये थे.
बेटों ने लमही का मकान नागरी प्रचारिणी को कर दिया था दान.
अब पोतों ने जन्मस्थली को वापस पाने के लिए शुरु की कवायद.
कहते हैं हमसे पूछ कर दान में नहीं दिया गया था लाखों का मकान.
31 जुलाई को जयंती पर कुछ संस्थाएं करती हैं रस्म अदायगी.

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं. जो किसी के काम न आ सके, मैं एक वो मुश्क-ए-गुबार हूं. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी इस गजल की एक एक पंक्तियां मेरे दर्द को बयान करती हैं. यह दीगर है कि बादशाह सलामत के लिखने की वजह कोई और थी और मेरा वाकया कोई और है. पर दर्द की तासीर एक है. मैं लमही में करीब सवा बिसवा जमीन पर बना एक मकान हूं. नहीं, नहीं. आप मुझे सिर्फ एक मकान ही नहीं कह सकते. क्योंकि मैं किसी आम आदमी की थाती नहीं हूं. मैं मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली हूं, इस लिए यकीनन पूरे देश के लिए एक धरोहर हूं. धरोहर इस लिए भी कि मैंने इस चहारदीवारी के भीतर कई कहानियों को जन्मते देखा है. मैं इस बात का गवाह रहा हूं कि साधारण सा दिखने वाला एक शख्स किसी असाधारण कहानी की प्रसव पीड़ा को कैसे झेलता है. उस दौरान उसकी फीलिंग्स कैसी होती है. धर्म, जाति, भाषा, बोली और क्षेत्र से ऊपर उठकर वह अपने पात्रों को किस तरह से गढ़ता और जीता है.
न किसी का हबीब हूं...
बादशाह सलामत ने लिखा कि ... न तो मैं किसी का हबीब हूं, न तो मैं किसी का रकीब हूं. जो बिगड़ गया वो नसीब हूं, जो उजड़ गया वो दयार हूं. आज मेरी हालत बिल्कुल ऐसी ही है. बाहरी मेन दरवाजे पर एक छोटा सा ताला जरूर लगा है पर इसकी कोई वकत नहीं है. पास में कुंए से लगे चबूतरे पर चढ़कर जो चाहे सो यहां आ जाता है. उसे यहां कुछ भी करने की इजाजत है. खुला परवाना इस लिए क्योंकि मेरे यहां कमरों के दरवाजे आपको हमेशा खुले मिलेंगे. खिड़कियों को भी कभी किसी ने बंद ही नहीं किया. इसकी वजह है कि कभी यहां मेरा कोई 'अपनाÓ आता ही नहीं. अब परायों से कोई क्या शिकायत करे. अच्छा है तो, बिगड़ा है तो. यह मेरी अपनी नियति है. हां, प्रेमचंद स्मारक से जुड़े सुरेशचन्द्र दूबे साल में एकाध बार यहां आकर साफ सफाई करा जाते हैं. उनके पास भी टाइम नहीं है. दरवाजा खुला होने के कारण विकास प्राधिकरण की कृपा से बनी मेरी लाल जमीन पर मिट्टी की पर्त जमीं है. बारिश का पानी छत पर जमा है. दरवाजे खराब हो रहे हैं. अभी मेरे कमरों में पांडेयपुर चौराहे से उखड़ कर आये शिलापट्ट और पत्थरों पर उकेरे गये मुंशी जी के कथा पात्र रखे पड़े हैं. इस लिए मैं अभी घर कम गोदाम ज्यादा लग रहा हूं.
मेरा रंग रूप बिगड़ गया...
बहादुर शाह जफर ने अपने लिए लिखा था... मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया. जो चमन फिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ल-ए-बहार हूं. आपको बताऊं कि आज मैं आपको जैसा दिख रहा हूं, वैसा पहले नहीं था. आज आपको जिस मकान को दिखा कर बताया जाता है कि यह कथा सम्राट मुंशी जी की जन्मस्थली है, दरअसल वो बखरी हुआ करती थी. यहां घर के जानवरों को बांधा जाता था. प्रेमचंद जी की जन्म स्थली को तो उनके स्मारक में मिला दिया गया. वो कमरा ही जमींदोज हो गया जहां मेरे मालिक की पैदाइश हुई थी. स्मारक के दक्षिण पश्चिम कोने में दीवार से लगा पत्थर का जो सोफा पड़ा है, वही वो जगह है जहां हिन्दी कहानियों के प्रणेता ने जन्म लिया था. मेरे मालिक के इस दुनिया से निकल लेने के बाद मेरी वो छीछालेदर हुई है कि उसका बयान करना मुश्किल है.
पढ़े फातिहा कोई आये क्यों...
बहादुर शाह की गजल के इस शेर में दर्द अपने चरम पर है... पढ़े फातिहा कोई आये क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं. कोई आके शम्मा जलाए क्यूं, मैं वो बेकसी का मजार हूं. मेरा अपना दर्द कुछ ऐसा ही है. मेरे अपनों ने अपनी जिंदगी से मुझे कुछ ऐसा बेदखल किया कि अब मुझे अपना कहने वाला कोई नहीं रहा. 1936 में मुंशी जी के निधन के बाद लोगों का मेरे यहां आना जाना कम हो गया. आपको यह बताते हुए मुझे शर्मिन्दगी हो रही है कि मेरी ही गोद में पैदा हो कर परवरिश पाने वाले मुंशी जी के वारिसों के लिए मैं बोझ हो गया था. 1956 के बाद तो यहां कोई आया ही नहीं. साज संभाल मुश्किल हो जाने के कारण उन्होंने 1958 में मुझे नागरी प्रचारिणी को दान कर दिया. अफसोस हिन्दी की झंडाबरदार इस संस्था ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया और 2006 में मुझे सरकार के हाथ में सौंप दिया. अब इन सबको मेरी कोई फिक्र नहीं है. हो भी क्यों? मैं कोई रायल्टी कमाने का जरिया थोड़ी हूं. मेरा अपना कोई यहां दिया बत्ती के लिए भी कभी नहीं आता. मेरे मालिक की जयंती पर भी नहीं.
मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां...
बादशाह ने लिखा था... मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां, मुझे सुन के कोई करेगा क्या. मैं बड़े बरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुख की पुकार हूं. वाकई में आज मेरे बारे में कोई सुन के क्या करेगा? पर मेरी चाहत है की कोई मेरी सुने. मैं एक दर्दभरी दास्तां हूं. मेरी यह चाहत सरकार या सिस्टम से ही नहीं है. हर उस शख्स से है जिसने कभी मुंशी जी को पढ़ा हो. बूढ़ी काकी से लेकर होरी तक के दर्द का जिन्हें एहसास हो. घीसू और माधो के चरित्र को समझा हो. वैसे तो लोग कहते हैं कि कल कभी नहीं आता लेकिन मैंने अपने कल से ढेर सारी उम्मीदें पाल रखीं हैं. वो जरूर आएगा.