Saturday, February 13, 2010

... के घर कब आओगे




बॉर्डर फिल्म के गाने की यह लाइन पुरानी लग रही होगी पर इस एक खबर के साथ बिल्कुल मौजूं लग रही है. वो अपने घर वापसी के लिए किससे इंस्पायर हुए यह तो हमें नहीं मालूम पर वे वतन वापसी के लिए अपना सामान समेट रहे हैं. जनाब हम बात कर रहे हैं ब्रिटेन में काम कर रहे भारतीय मूल के 25 हजार डॉक्टर्स की. अगर हम भारत यात्रा पर आये 'ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ फिजिशियन्स ऑफ इंडियन ओरिजिनÓ के प्रेसिडेंट डॉ. रमेश मेहता का यकीन करें तो यूके में काम कर रहे भारतीय मूल के डॉक्टर्स मुल्क वापसी की तैयारी में है. इस वापसी की वजह कोई रिसेशन या छंटनी नहीं है सर. देशभक्ति के जज्बे के तहत वे घर लौटना चाहते हैं. सर्दी के इस सुस्त मौसम में यह एक अच्छी खबर है न? हमारे भी यही खयालात हैं. इसमें अच्छी बात क्या है जानते हैं? ये सारे डॉक्टर्स इंग्लैंड के हाई फाई हॉस्पिटल्स में काम कर रहे हैं या ट्रेनिंग पा रहे हैं. इन्हें भारत के देहाती इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा की खबरें हमेशा सालती रही. ऐसे में इन्होंने एक दिन एसोसिएशन के थ्रू इंडियन हेल्थ मिनिस्ट्री से सम्पर्क किया. वहां से पॉजिटिव रिस्पांस मिलते ही अब ये स्वदेश वापसी की तैयारी में हैं.हम जानते हैं कि इतने सारे डॉक्टर्स की वापसी के बावजूद भारत के बीमार स्वास्थ्य विभाग की सेहत तुरंत सुधरने वाली नहीं है. बावजूदन इसके कहा जा सकता है कि जहां कहीं भी ये डॉक्टर्स इम्प्लायड होंगे वहां आबादी के एक बड़े हिस्से को इसका एडवांटेज तो मिलेगा ही. इस खबर का सबसे दिलचस्प पक्ष यह है कि घर वापसी की चाहत रखने वाले डॉक्टर्स में 15 हजार यूथ है. यह सोने में सोहागा जैसी बात होगी. ऐसे में हम क्या इन डॉक्टर्स से सब जानना चाह रहे होंगे कि घर कब आओगे? है न?

Friday, February 12, 2010

चश्मे मस्ते, अजबे ...


महीने भर से डाट कर पहनी जर्सी को झाड़ते हुए दीक्षित जी कुछ गुनगुना रहे थे. मैंने कान लगा कर सुनने की कोशिश की तो ऐनक को नाक पर उपर सरकाते हुए पूछ बैठे. क्यों बरखुरदार आयी बात कुछ समझ में? नहीं ना? अमां ये इश्क है ही ऐसी चीज जो किसी के पल्ले पड़ती वड़ती नहीं है. बस यूं समझो ठग्गू के लड्डू की तरह. जो खाये वो पछताये और जो ना खाये वो पछताये. मैं भी सोचने लगा यार, ये बात तो कर रहे मोहब्बत की फिर इसमें लड्डू क्या घालमेल. चलो होगा कुछ. ये जिस जमाने के हैं उस वक्त की मोहब्बत में आज जैसा लावण्य नहीं हुआ करता होगा. मैं सोचा जा रहा था और वो थे कि खालिस इंग्लिश में भारी भरकम डायलॉग्स दाग रहे थे. यू नो दिस इस अ सूफी कलाम. 'चश्मे मस्ते, अजबे गुल-ए- तराशा कर दीÓ. इस परशियन कलाम में आशिक इश्क में इस कदर डूबा हुआ है कि उसे यह जहान मस्ती का चश्मा यानि झरना नजर आता है. यार, ये आज के लोग समझते हैं कि अफेक्शन कोई मॉडर्न एरा की चीज है. अब मैं इन्हें कैसे समझाऊं कि ये लव का जो डेफिनेशन आज तुम दे रहे हो वो हकीकत नहीं है.देर तक भाषण सुनते हुए मैं भी बोर हो चला था. इंटरप्ट कर बैठा. सर, दिक्कत क्या है? फिर क्या था, सारी भड़ास बलबला कर बाहर आ गयी. मेरे भाई, मेरा इकलौता बेटा है. नाम मैंने उसका सागर इस लिए धरा कि वो दरियादिल बने. पर जानते हो वो अपना दिल ही बांटता फिर रहा है. आज वो इंस्टीट्यूट से लौटते हुए एक नयी कन्या के साथ आया. पूछ लिया तो बताया कि वो उसकी गर्ल फ्रेंड है इस बार का वेलेंटाइन उसने इसके साथ फिक्स कर रखा है. उस कन्या को मैंने नयी इस लिए कहा क्योंकि वो इस साल की उसकी सातवीं गर्ल फ्रेंड है. यार अब तुम्ही बताओ कि मोहब्बत के देवता, क्या नाम है उनका, हां वो संत वेलेंटाइन को पूजने का यही तरीका है? किसी अनवांटेड काइंड की तरह हर दो महीने बाद दोस्त बदल दो? जब तक साथ है उसे गिफ्ट दो, प्रपोज करो, इधर उधर टहला घूमा दो और उसके बाद कुट्टी कर लो. फिर उसे जिंदगी से ऐसा बेदखल करो कि उससे जुड़ी कोई याद बाकी न रह जाए और फिर ले आओ दूसरी या दूसरा फ्रेंड. नहीं, नहीं ये अफेक्शन नहीं है. यह तो 'यूज एंड था्रेÓ है. दीक्षित जब बोलते हैं तो किसी दूसरे की सुनते नहीं हैं.हां, ये सब होगा अंग्रेजों के यहां. हम उनके जज्बात की तारीफ करते हैं लेकिन हम तो इस मोहब्बत को अपनी चाशनी में लपेट कर महसूस करने के आदी हैं. कैसे कहूं कि ये इश्क खालिस रूहानी चीज है. वो उस ऑल माइटी का दिया सबसे नायाब तोहफा है जो इस दुनिया को चलाता है. इसमें जिस्म कोई वजूद नहीं होता. यह तो दो रूहों की अंडर स्टैंडिंग है. नजीर देखना हो तो हजरत निजामुद्दीन औलिया और हजरत अमीर खुसरो की बेपनाह मोहब्बत को देखो. एकदम आसमान से उतरी हुई. एक रवानगी थी, अदब था और यकीनन था जिंदगी भर साथ निभाने का वादा.और अब हम कहां आ पहुंचे हैं. साल भर में सातवीं फ्रेंड. अमां, ये मुआ फरवरी का महीना तो पहले भी आता था? यह है भी कुछ अजीब सा. जाती हुई ठंड और आता हुआ फागुन. मन में मीठी सी टीस लिए इधर उधर डोलता दिल जवां होने की कुछ ज्यादा ही फीलिंग्स देता है. दूसरों की छोड़ो गौर करो तो अपनी ही बॉडी लैंग्वेज बदली बदली सी दिखायी देने लगती है. वो क्या कहते हो तुम लोग 'एक्स फैक्टरÓ और 'केमेस्ट्रीÓ जैसे सिर चढ़ कर बोलने लगती है. अचानक कनखी दबा कर उनका यह कहना गुदगुदा गया, देखो पंडित जी, ऐसा नहीं कि यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता. हमें भी यह सब पसंद है. हम तो आज भी अपनी स्लिम ट्रिम को घुमाना चाहते हैं लेकिन क्या कहें यह हमारी कृशकाया गऊ जब देखो तब बीमार ही रहती है. घूमने का प्रपोजल रखो तो कह देगी भक! सामने खड़े ये कहते हुए दीक्षित जी खुद ऐसे लजा रहे थे जैसे छुई मुई हों. दीक्षित जी बोले चले जा रहे थे और मैं चार्वाक को फेल करती उनकी फिलॉसफी में गहरे और गहरे डूबता चला जा रहा था. कॉन्शस को सब कॉन्शस समझाने में लगा था, देखो दरअसल लव अफेक्शन के प्रति यह सोच किसी अकेले दीक्षित जी की नहीं है. यह फिलॉस्फी एक पूरी जेनरेशन की है. वो आज के यूथ से अलहदा सोच नहीं रखती. उनके मन में भी प्रेम का वही भाव है. वह परेशान है इस बदलते भाव के बेअंदाज रवैये से. वह प्रेम को किसी डे या वीक में बांधे जाने से दुखी है. इश्क तो सतत प्रवाहमान वह दरिया है जिसका कोई ओर छोर नहीं. अचानक टूटती हुई तन्द्रा में लगा कोई कुछ कह रहा है. देखा तो दीक्षित जी गुनगुना रहे थे...ऐसा जाम दे कि मुझे खुमार आ जाए.ऐसा जाम दे कि मुझे खुमार आ जाए.मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं.मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं.दे दे ऐसा जाम के मुझे खुमार आ जाए.तेरी आंखें जिनसे बाग-ए-खुतन में रौनक है.तेरा चेहरा जिससे चमन के गुलाब में रौनक है.फूल सा चेहरा जिससे पत्ता पत्ता महकता है, यार का वतन लालजार है.ऐसी मोहब्बत को सलाम करने का जी चाहता है. है ना?

Thursday, February 11, 2010

उफ ! ये नफरत...

असंतोष या विचारों में फर्क होना एक अलग चीज है लेकिन यह फर्क राह भटक कर अपराध की अंधेरी सुरंग की तरफ बढऩे लगे तो उसे किसी भी हालत में सही करार नहीं दिया जा सकता. चर्चित रुचिका केस के एक्यूस्ड एसपीएस राठौड़ को चाकू मारे जाने का मामला ऐसी ही कुछ बयान करने लगा है. राठौड़ को चाकू मारने वाला उत्सव शर्मा कोई जनरल स्टूडेंट या यूथ नहीं है. वो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ फाइन आट्र्स का गोल्ड मेडलिस्ट बंदा है. घटनाक्रम के सिलसिले में फिलहाल जो बातें सामने आ रही हैं उससे पता चलता है कि सिस्टम के खिलाफ उसके मन में एक असंतोष था. इन सबके चलते वह थोड़ा उग्र या कह सकते हैं कि विद्रोही हो गया था. उसके सब कॉन्शस में लगातार द्वन्द चलता रहता था. इस कशमकश ने आज उसे एक ऐसे दलदल में पहुंचा दिया जिससे उबर पाना शायद नामुमकिन है.एक टैलेंटेड यूथ के इस अंजाम पर पहुंचने के लिए जिम्मेदार कौन है, यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है. लेकिन हम अपने आसपास दिख रहे कई उत्सव शर्माओं का क्या करें जो सोसाइटी से अपने सवालों का जवाब चाहते हैं. क्राइम, करप्शन, सैबोटाज और कॉन्सपरेंसी के चौगुटे से नफरत रखने वाले ये उत्सव कोर्ट के लचीले रवैये से भी खासे नाराज हैं. इनकी नाराजगी स्वाभाविक है. तारीखों में उलझी कोर्ट और वहां से बरी होकर निकलते आरोपी. आरोपियों की विद्रुप मुस्कान उनके विद्रोही मन की आग को हवा देने का काम करती है. कहने का मतलब अपराध की कोख एक और अपराध को जन्म देने का काम करती है. तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपराध के इस स्रोत का मुंह ही बंद कर दें. इन्हें पनपाने वाले तमाम कारणों का ही खात्मा कर दें. अपने कानून पर भरोसा करें. बगावत की टेंडेंसी वाले लोगों को समझायें कि भइया धीरज रखो. हम जानते हैं कि यह सब इतना आसान नहीं है. लेकिन हमें यह भी यकीन है कि इस दिशा में की गयी एक पहल कई उत्सव शर्माओं को राह भटकने से रोकेगी.

हां, हमें मोहब्बत है

हेडिंग पढ़के हो गये ना परेशान? नहीं भई, किसी के साथ अफेयर वह भी इस उम्र में? तौबा-तौबा. अरे मैं अभी जिंदा रहना चाहता हूं यार. लेकिन आज आपको बताऊं, पिछले दो-चार दिनों से इस एक सेंटेंस ने मुझे अंदर से जैसे मथ डाला है. अलसुबह अखबार पढ़ते हुए एक हेडिंग पर जाकर जैसे मेरी निगाह टिक गयी. लिखा था - हां, मुझे उससे मोहब्बत है. इश्क का यह एकसेप्टेंस फ्रिडा पिंटो की तरफ से था. उसने यह कह तो दिया लेकिन उसमें एक झिझक थी. हां, देव पटेल मेरे सपनों का राजकुमार है और मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करती हूं. इस खबर ने मुझे बॉलीवुड की किसी फिल्म की तरह फ्लैशबैक में पहुंचा दिया. देर तक एक ही खबर पर अटके देख पत्नी ने पूछ ही लिया क्या बात है तबियत तो ठीक है? मैंने भी अखबार दिखाते हुए गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद के अंदाज में सवाल दाग दिया, इतनी देर कर दी रहनुमा आते आते?पत्नी भी कम नहीं, उसने तुरंत तथागत का चोला ओढ़ते हुए कहा जानते हो वत्स इसकी असली वजह है संकोच. यह देव पटेल और फ्रिडा पिंटो की ही नहीं इस पूरे इंडियन सब कॉन्टीनेंट की यूनिवर्सल प्रॉब्लम है. यहां का जीव बेहद संकोची होता है. वह वेस्टर्नाइज चीजें पसंद करता है. उसके हावभाव अपनाता है. स्टाइल मारने में भी वह भी किसी ब्रिटिश या अमेरिकन को कॉपी करता है लेकिन एक चीज है जो उसे सबसे अलग रखती है और वो है पर्देदारी. पत्नी एक्स्टएम्पोर बोले जा रही थी और मैं योग्य शिष्य की तरह सुने जा रहा था. जानते हो यह पर्देदारी काहे की है. इसमें एक हया है, एक लिहाज है, और है एक अदब. किसी जिज्ञासु की तरह मैंने फिर एक सवाल दाग दिया. तो क्या उन्हें इसके पहले इश्क नहीं था? अगर था तो वो इतने लम्बे समय तक क्यों छिपाये रहे? देखो यह हमारे संस्कारों में नहीं है. ह्यूमन साइको के बेस पर हम कह सकते हैं कि देव और फ्रिडा के बीच पहली नजर में ही प्यार हो गया था. ब्रिटेन में पलने बढऩे से हर कोई अंग्रेज थोड़े हो जाता है. शायद यही वजह है कि देव और फ्रिडा ने इश्क के इस अहसास को भरपूर महसूस किया उसकी सोंधी खुशबू को गमकाया और तब जाकर कहा, हां हमें मोहब्बत है. अब तुम्ही सोचो न यह कोई आमिर खान और उर्मिला मातोंडकर की मुम्बइया फिल्म 'रंगीलाÓ की कहानी तो है नहीं जो 70 एमएम पर देखे और फिर भूल गए. यह रियल लाइफ की स्टोरी है. इसमें जो कहा जाता है उसके बहुत मायने होते हैं. इसके अलावा यह सेलेब्रेटी लोगों की दुनिया है यहां बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती. ऐसा क्यों है? देखो यह जो इश्क है ना, वह स्प्रिचुअल चीज है. यह आम दुनियावी लोगों के पल्ले नहीं पड़ती. इसीलिए देखते होगे एक दूसरे को चाहने वाले दो जवां दिलों के ढेर सारे विरोधी होते हैं. कह सकते हो कि जिसने इश्क की तासीर को महसूस किया वो इस दुनिया के काबिल नहीं रहता. वह अपनी ही दुनिया में डूबता उतराता रहता है. अब तुम फिर सोच रहे होगे कि यार इतनी सी बात को कहने में इत्ती देर. दोस्त इसकी वजह भी हमारा हिन्दुस्तानी संस्कार है. यहां किसी से अफेक्शन कंसीव करना आसान है पर उसे एक्सप्रेस करना बेहद मुश्किल. इसमें बहुत सी बातें हैं जो रोड़े अटकाती हैं.एक और खासियत हम हिन्दुस्तानियों की है. हमारे मन में लेडीज के प्रति एक अलग जज्बा है और एक खास अदब है. यह अदब और जज्बे का भाव ही हमें किसी से अपने अफेक्शन का ऐलान करने से रोकता है. यह अदब अपोजिट सेक्स से रिश्ते को एक गरिमा देता है. तमाम शिकवा शिकायतों के बावजूद एक इंडियन कपल रिश्तों की डोर को टूटने से हर हाल में बचाता है. वह अपने मसलहतों को बेदर्द कानून के दायरे के बजाय आपस में मान मनुहार से सुलझाने में ज्यादा भरोसा करता है. यही सारी वजहें है जो भारतीय जोड़ा अपनी मैरिज की गोल्डन एनिवर्सरी मनाता है जबकि वेस्टर्न कंट्री का बाशिंदा अपने पार्टनर के नम्बर गिनने में ही जिंदगी काटता है.पत्नी चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी और मैं अपने ही ख्यालों में गहरे और ज्यादा गहरे डूबता चला जा रहा था. उठे हुए हाथ सलाम किये जा रहे थे, भारतीय संस्कारों को, शर्मो हया को, लिहाज को और अदब को. अचानक जैसे एक सपना टूटा और ये आवाज आयी ऐ मोहब्बत तू जिंदाबाद.