Wednesday, March 31, 2010

कोई सपनों के
दीप जलाये ...

एक गाना है. कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये. मेरे ख्यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाये. इस गाने को कई बार आपने भी सुना होगा. मैंने भी कई बार सुना. पर एक दिन इस गाने के बोलों के साथ एक खयाल भी मन में आया कि वाकई हमारे और आपके मन का सूर्य जब ढलने लगता है, मन बुरी तरह से हताश और निराश सा हो जाता है तो कोई तो एक ऐसा है जो आकर हमारे और आपके मन में सपनों के दीये जला जाता है. आखिर वह है कौन? मन ने मन से ही सवाल पूछ दिया. कई दिनों की जद्दोजेहद और कई रातों की उधेड़बुन के बाद मन से जवाब भी मिला. जवाब था हताशा और निराशा की घड़ी में सपनों के दीप जलाने का काम कोई और नहीं हमारा मालिक करता है. कहते है कि ऐसी घड़ी में मालिक ही मन को कुंठा से उबारने का काम करता है. यहां मालिक से मेरा तात्पर्य आपके अपने इष्टï या गुरू से है. गुरू से सर्वोपरी इस दुनियां में कोई हुआ ही नहीं. गुरू की स्तुति के बगैर किसी भी तरह की आराधना या इबादत का कोई मतलब ही नहीं है. किसी ने सवाल खड़ा किया कि ऐसा क्यों ? इस पर जवाब आया कि गुरू में वह ईश्वरीय तत्व मौजूद है जो शिष्य को ईश्वर के घर की दहलीज तक पहुंचाने का काम करता है. फर्श से अर्शे आजम तक की सैर कराता है. अब शायद आप पूछ बैठें कि ईश्वर की पहचान हो तो कैसे हो? क्योंकि जब किसी ने उन्हें देखा ही नहीं तो हम उन्हें पहचानेंगे कैसे? इसका जवाब भी स्वयं गुरू है. यानि हमें गुरू में ही अपने ईश्वर या इष्टï का दर्शन करना चाहिए.
अब सबसे बड़ा सवाल है कि ईश्वर को देखा कैसे जाये? ईश्वर कोई दृश्यमान तो हैं नहीं. वह तो महसूस करने की एक ऐसी अनुभूती का नाम है जिसका वर्णन कभी किया ही नहीं जा सकता. दरअसल अल्लाह या भगवान हैं क्या? एक बार मैंने भी अपने आराध्य से यह सवाल पूछने की हिमाकत कर दी थी. सवाल बड़ा गहरा था. उस समय तो उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन एक लम्बी मुद्दत गुजरने के बाद एक दिन उन्होंने किसी और के श्रीमुख से मुझे उसका जवाब दिलवाया. देखिये जवाब भी मिला तो कितना वजनदार. कहा जब देवत्व के सारे गुण किसी एक मरकज में जमा मिले वही अल्लाह है वही भगवान है. जाहिर है कि वह और कोई नहीं, खुद हमारा गुरू ही होगा. गुरू से यहां मेरा मतलब किसी स्कूल या कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापक से नहीं है. यहां मेरा मतलब हमारी भावनाओं, हमारे तमाम स्नायु तंत्रों को नियंत्रित करने वाले हमारे आध्यात्मिक गुरू से है. गुरू से मेरा आशय उस हस्ती से है जो हमारे ध्यान का आधार है, जिसके श्रीचरण हमारी पूजा का अवलम्ब है, जिसके वचन हमारे जप-जिक्र हैं और जिसका फैज हमारे मोक्ष का द्वार है.
कहते हैं कि जब भी पूजा के लिए बैठा जाए तो सबसे पहले अपने गुरू की तस्वीर को खयाल में बांधा जाना चाहिए. या फिर यूं कहूं कि गुरू का तसव्वुर करना चाहिए. इतना ही नहीं गुरू के श्रीचरणों को ही अपनी पूजा का आधार बनाया जाना सर्वोत्तम होता है. शायद कहने की जरूरत नहीं है कि सदगुरू के वचन हमेशा सुभाषित होते हैं. इस लिए हमें उन्हें ही अपने जप-जिक्र का मूल बनाया जाना चाहिए. यकीन मानिये अगर हमनें इतना कर लिया तो गुरू का आशीर्वाद मिलना भी सुनिश्चित है. ऐसे में उनसे मिलने वाला फैज यानी आशीर्वाद ही हमारे मोक्ष का कारक बनेगा. गुरू की शान का बखान सुनना या पढऩा हो तो सूफी दर्शन का अध्ययन किया जाना चाहिए. सूफी वातायन पीर यानी गुरू को अल्लाह या खुदा से भी बढ़ कर मानता है. इस मत का मानना है कि किसी सदगुरू या बड़े पीर-फकीर के दुनिया में आमद होने की मुनादी एक सदी पहले से ही पीटी जाने लगती है. हजरत बड़े पीर दस्तगीर हजरत शेख अब्दुल कादिर जिलानी जिनका नाम स्मरण किये जाने मात्र से हमारा सिर बसजू अदब से झुक जाता है, के पैदाइश की खबर दुनिया में एक सदी से भी पहले लोगों को हो गयी थी. इतना ही नहीं उनके करामातों का भी लोगों को इलहाम हो गया था.
जिस तरह से दिन के बाद रात होना और रात ढलने के बाद नये शफकत के साथ आफताब यानी सूर्य का दीदार होना तयशुदा है उसी तरह हमारे जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख का आना एक हकीकत है. सुख की घड़ी में हम अपने ईश्वर का कभी स्मरण नहीं करते, पर संकट के लमहों में सिर्फ उसी को ध्याते हैं. होना यह चाहिए कि अच्छे दिनों की शुरूआत के साथ ही हमारे दिल में एक खौफ बैठ जाना चाहिए. यह खौफ सुख के बाद निश्चित रूप से आने वाले दुख देने वाले लमहों को लेकर होना चाहिए. उस वक्त हम मदद की गुहार लेकर अपने पास आने वाले लोगों को दुत्कारते हैं. उन्हें तरह-तरह की जली-कटी सुनाते हैं और खुद के बनाये ख्वाबों खयालों में डूबे रहते हैं. हम भूल जाते हैं कि अच्छे दिनों के ये लमहात एक मुकर्रर वक्त तक ही हमारे पास रहेंगे. इसके बाद वे अपना दूसरा ठिकाना ढूंढ़ लेंगे. फिर शुरू होगा गर्दिश का दौर. इस दौर का कोई वक्त मुकर्रर नहीं होता. कहते हैं कि अगर हमने अपने अच्छे वक्त में ठीक-ठाक काम किया हो तो इस काल को भी एक दायरे में बांधा जा सकता है या फिर गर्दिश की तपिश को कम किया जा सकता है. पर अच्छे वक्त के गुरूर में डूबा मनुष्य यह सब उस समय कहां सोच पाता है. उसे उस वक्त दुनिया अपनी मुठ्ठïी में और सारा देवत्व अपनी जेब में दिखायी पड़ता है. लेकिन मालिक की लीला भी अपरम्पार है. उसे आज तक कोई समझ नहीं सका. एक दिन मुठ्ठïी से रेत की मानिंद दुनिया खिसक जाती है और जेब की छेद से सारा देवत्व निकल जाता है. ऐसी घड़ी में मनुष्य को ईश्वर की बेतरह याद आती है. संकट से उबारने के लिए वह उन्हें पुकारता है. फिर से अच्छे दिनों को देने की गुजारिश करता है. न मिलने पर वह इसके लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है और उन्हें कोसता है. वह अपने तमाम गुनाहों और कुकर्मो को भूल जाता है जो उससे अच्छे वक्त में जाने-अनजाने में हुए रहते हैं.
संकट के इस दौर में अगर मनुष्य को किसी सदगुरू की पनाह मिल गयी तो दिक्कतों की इस घड़ी को आसानी से काटा जा सकता है. मुश्किलातों के इस दौर को झेलना तो छोडिय़े इसके बारे में कुछ बयान कर पाना भी आसान नहीं है. कहते हैं जाके पैर न फटे बिवाइन, ऊ का जाने पीर पराई. यानी जिसके पैर में बिवाइन न फटी हो वह उस दर्द का अहसास कैसे कर सकता है. कहने का मुद्दा-ए-आलिया यह है कि परेशानियों से भरे इस दौर को हम अपने सदगुरू की कृपा से आसान बना सकते हैं. इसके लिए जरूरी है कि हमें एक सदगुरू मिले. अब आप शायद पूछें कि दुनिया में इतनी सारी तकलीफें क्यों है? दुख क्यों है? ऐसा ही एक सवाल भगवान गौतम बुद्ध से उनके एक शिष्य ने एक दिन पूछ लिया था. उसने पूछा कि हे तथागत! आप यह बतायें कि संसार में इतना असंतोष क्यों है? बहुत देर तक भगवान को भी इसका जवाब न सूझा, पर उन्होंने कदाचित सोच-विचार के बाद कहा कि भिक्षु! इसकी एक और अकेली वजह है तुलना. गौर करो मनुष्य हर घड़ी हर लमहा दूसरों से अपनी तुलना करता है. अपनी जरा सी कमी को वह बर्दाश्त नहीं करता. ऐसे में वह दिन रात ईष्र्या की आग में जलता है. दूसरों के लिए तमाम तरह के राग द्वेष पालता है. और यह राग द्वेष ही असंतोष का मूल है.
कितना माकूल जवाब था. हजारों साल बाद आज भी वह प्रासंगिक है. दरअसल आज लोगों में लोच (इलेस्टिीसिटी) नहीं है. आज लोग किसी भी कीमत पर किसी के भी आगे झुकना नहीं चाहते. बच्चे मां-बाप के आगे झुकना नहीं चाहते, पति-पत्नी एक दूसरे से दबना नहीं चाहते. कैसी अजीब विडम्बना है कि हमारे षोडष संस्कारों में भी खुद को मिट्टïी बना लेने या अपने अहंकार को खत्म कर लेने की बात कही गयी है, पर आज इसे मानता कौन है. अब आप देखिये कि वैवाहिक संस्कार के वक्त एक रस्म होती है, जिसे जयमाल कहते हैं. इस दौरान आपने देखा होगा कि जयमाल पहनने के लिए पहले वर वधू के सामने झुकता है. आखिर इसकी वजह क्या है?
गुजरे जमाने की बात है. एक दिन हमारे श्रद्धेय किसी की शादी में गये. लौट कर आने के बाद साथ गये अपने खादिम से उन्होंने पूछ ही लिया, का हो दीक्षित जी उहां का देखला? सबसे अच्छा का लगल? पुराना साथ होने की वजह से खादिम दोस्त जैसा हो गया था. उन्हें अव्वल तो कोई जवाब नहीं सूझा. सूझा भी तो लगा कि इन्हें रास नहीं आयेगा. सो कह बैठा, यार पहेलियां न बुझाओ, जो कहना है साफ- साफ कह डालो. तुम जुल्फें लहराते हो दुनिया का कलेजा मुंह को आता है. जानते हैं इस सवाल का जवाब उन्होंने क्या दिया. गुरूवर ने कहा, पंडित जी विवाह की सबसे अच्छी रस्म थी जयमाल. इसमें भी आपने देखा होगा कि सेहरा बांधा हुआ दूल्हा जयमाल पहनने के लिए दुल्हन के आगे पहले झुका. महाराज, इस रस्म में हमें यह बताया गया है कि दुल्हा दुल्हन के आगे इस लिए झुकता है, क्योंकि शक्ति के आगे ब्रह्मï झुका है. स्त्री शक्ति का पर्याय है और पुरूष ब्रह्मï का. विवाह दोनों के संयोग की घड़ी है. ऐसी पावन बेला में सवाल दोनों में किसके ज्यादे सामथ्र्यवान होने का नहीं है. सवाल दोनों के एक दूसरे के प्रति समर्पण या दोनों के व्यक्तित्व के लोच का होता है. वैसे भी पंडित जी स्त्री की शक्ति को भगवान भी पूजता है. सो पत्नी के रूप में स्वीकारने के पहले पुरूष स्त्री के आगे झुकता है. गुरूवर पूरी सुराही उडेल रहे थे और दीक्षित जी मदमस्त शराबी की तरह छक कर पी रहे थे. जाहिर है माहौल अपने शबाब पर था, पर अदब भी अंगद के पांव की तरह अपनी जगह अडिग था. गुरूवर बोलते चले जा रहे थे. पंडित जी, शादी के बाद बेटी की बिदाई के रस्म में भी गहरा रहस्य छिपा है. इस रस्म के साथ बेटी को फकीरी का पहला पाठ पढ़ाया गया है. इसमें वह अपने घर से निकलकर किसी गैर के घर जाती है. वहां वह गैरों को इस तरह अपना लेती है कि उन्हें अपने पराये का ख्याल भी नहीं आता.
दोस्तों इस तरह का जवाब जिस मुबारक जुबान से निकलेगा वह वाकई सदगुरू होगा. हमारा मालिक होगा. हताशा के दौर में उम्मीद के चराग रौशन करेगा. मुरादों की सूखती हुई कलियों को सरसब्ज करेगा. पर हमें इसके पहले यह समझ लेना चाहिए कि यह सब कुछ इतना आसान नहीं है, जितना कि दिखता है या पढऩे में लगता है. इन सबको जीवन में उतार पाना काफी मुश्किलों से भरा होता है. किसी ने कहा है कि यह बज्म ए इश्क है, वफा की महफिल है, यहां चिराग नहीं दिल जलाये जाते हैं. इसलिए आग के इस दरिया में उतरने से पहले दिल को मजबूत किये जाने की जरूरत होती है. आइये आज हम सब भी अपने आराध्य से मजहबे इश्क की राह में अपने लिए दिल की मजबूती, यकीन और यकदा को कायम रखने की ताकत, श्रद्धा और भक्ति के साथ सब्र देने की गुहार करें. मालिक हम सबकी मुरादों को पूरा करें.
आमीन.

Saturday, March 20, 2010


बहन के

नाम एक

भाई की पाती
बहन के नाम लिखा गया यह एक भाई का खत है. मजमून पढ़ा तो समझ में आया कि खालिस इश्क के मायने क्या है. एक एक जुमला मोहब्बत की चाशनी में लपेटा हुआ. पढऩे से समझ में आया कि रिश्तों की कोई जात नहीं होती. इसमें कोई छोटा या बड़ा नहीं होता. अगर कुछ होता है तो वह है सिर्फ अदब और आदाब. इस लेटर को हूबहू पोस्ट कर रहा हूं. अच्छा लगे तो कमेंट जरूर करिएगा....

आदरणीय सना बाजी
सलाम

बज्जो कैसा अजीब सा लगता है कि आज आप की निकाह क्या हो रही है कि आप मेरी बज्जो से बाजी बन बैठीं. यकीन ही नहीं हो रहा है कि हमारी बज्जो इतनी बड़ी हो गयी है कि वह निकाह कूबूल कर रुखसती को तैयार हो जाए. मेरे लिए यह एक अजीब सी खुशी और गम का पल है. खुशी इस लिए की आज हमारी बहना निकाह लायक हो गयी और गम इस लिए की रुखसती के बाद वह एक ऐसे शहर में रहेगी जो हमारे चक्रमण के रूट में नहीं आता. अब तक हमारे नक्शे में राजस्थान में सिर्फ ख्वाजा गरीब नवाज के शहर अजमेर का नाम ही दर्ज था, पर अब कहना पड़ेगा की हमारे तालुकात जोधपुर से भी हैं. बहरहाल बज्जो मुझे आज अपने बचपन के एक-एक लम्हे की याद आ रही है. कैसे हम लोग ईद-बकरीद, होली-दीवाली, रजब की दसवीं तारीख और गणपति के दिन एक ही दस्तरख्वान पर खाना खाते थे. रमजान के पाक महीने में अफ्तार करते थे. इस अफ्तारी का हमें अर्से से इंतजार रहता था. याद है उस दिन हम लोग रोजा भी रखते थे. बज्जो मुझे वह सब आज भी याद है कि पापा की डे ड्यूटी के वक्त शनिवार के दिन मैं कैसे आपके और भाई के साथ दिन गुजारता था. लक्ष्मी पार्क बिङ्क्षल्डग के पीछे पहाड़ी पर खेलने जाना, साइकिल चलाना, क्रिकेट खेलना सब कल की बात लगती है. आप लोगों की और मेरी साइकिल की खरीद के वक्त हमने कैसे इडली खायी थी. आपको शायद याद होगा कि सेन्ट एलॉयशिस में हम कैसे साथ में स्कूल जाते थे. इसके बाद जॉन ट्वेंटी थर्ड में मेरे और भाई के एडमीशन के बाद पापा और फूफाजी ने कितनी तरकीबें लगाकर आप का एडमीशन कराया था. सिस्टर रेबेका के सामने आपका किया ड्रामा पापा को आज भी याद है. हो सकता है किसी के लिए यह सब बीता हुआ कल लगे पर हमें तो आज तक अपने साथ लगातार चल रहा एक ऐसा सिनेमा लगता है जिसका कोई इन्टरवेल या दी एण्ड नहीं होता. सिनेमा के नाम पर वसई जा कर जुरासिक पार्क देखना हम कभी न भूल सके . बज्जो कैसे बताऊं कि हमें बनारस लौट आये एक अर्सा बीत चुका है पर मेरे दिल में आपकी और मोहतरम भाई की पैठ आज भी वैसी ही गहरी बनी हुई है. किसी बात पर भाई का गुस्साना फिर बाद में आपका उनको समझाना आज जब भी याद करता हूं तो मेरे दिल में गर्व का भाव आता है कि सना हसनैन मेरी आपा है. आपको शायद यकीन न हो की मेरी बातें सुन-सुन कर सृष्टिï भी आपके प्रति एक अदब का जज्बा रखती है. मेरा मानना है कि यह सब मौला का करम है कि हम सब ने एक ऐसी परवरिश पायी जहां नफरत के लिए कोई जगह नहीं है. मिर्जा और गोकर्ण परिवार के बीच रिश्तों की जो डोर बंधी है वह सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत के ताने से बुनी हुई है. हमारे रिश्तों का आधार वो संस्कार है जो हमें अपने बुजुर्गों से मिले. मंत्रों के साथ हमारा दोआ पढऩा, जनेऊ के साथ ताबीज पहनना, तस्बीह फेरना और नमाज के बाद गणपति बप्पा के जुलूस में शिरकत करना हमें लाखों-करोड़ों दुनियावी लोगों की भीड़ से अलग करता है. हो सकता है की हमारे विचारों को सुन कर लोग हमें मजहबी कहने की चूक कर बैठें, पर यकीन मानो हमारी यह अकीदत रूहानियत से ताल्लुकात रखती है. और यह हमें ता जिन्दगी गुमराह होने से रोकेगी.बज्जो मौला के प्रति अकीदत का यह भाव हमें सी-201 से मिला जिसे हमारे पीर साहब ने परवान चढ़ाया. तुम्हें मैं कैसे यह बताऊं की आज दीवानगी के जिस आलम में मैं और मेरा परिवार जी रहा है (जिस पर हमें गुरुर है) वह सब पूज्य दद्दा, फूफाजी और बुआजी की ही देन है. बहरहाल बज्जो आज जब आप निकाह कुबूल फरमाने जा रही हैं तो आपसे यह गुजारिश है कि आप दूल्हे भाई मुस्तफा जैदी साहब को हम सब के बारे में बताइएगा. आप उन्हें यह बताइएगा की मेरे और आप के परिवार के दरम्यान यह जो रिश्ता है वह मौला-ए-कायनात की तरफ से हमें दिया गया एक अजीम तोहफा है, जिस पर हम रश्क करते हैं. उन्हें वो वाकयात बताइएगा जिसने इस रिश्ते को परवान चढ़ाया. आप कोशिश करीयेगा की वर्दी वाले हमारे दूल्हे भाई हमारे ही रंग में इतने ढल जाएं की हम जब भी उनसे मिलें तो इस बात का अहसास तक न हो की हम पहले कभी मिले ही नहीं. वैसे मुझे इस बात का इलहाम है कि हमारे मुस्तफा भाई भी हम जैसे ही होंगे तभी उन्होंने हमारी आपा को पसन्द किया. अब आपसे एक और गुजारिश है कि आप जल्द से जल्द बनारस आने का प्रोग्राम बनाएं. हमारे गरीब खाने का हर मेम्बर आपके इस्तेइकबाल को बेताब है. अब जरा अपने प्यारे मोहम्मद भाई को भी पूछ लूं, वरना वह जब भी मुझसे मिलेंगे तो यही कहेंगे, अबे बज्जो के चमचे मुझे सलाम नहीं ठोकेंगा. पूज्य दद्दा, फूफाजी, बुआजी को सादर चरण स्पर्श और मेरे प्यारे भाईजान को आदाब. निकाह में शामिल न हो पाने का मुझे हमेशा मलाल रहेगा. यकीन है कि मेरी गैरहाजिरी को आप माफ करेंगी और एग्जाम के लिए मेरी हौसला आफजाई करने के वास्ते खत जरूर लिखेंगी. याद रहे की 27 दिसम्बर को मेरी बर्थ डे है. अन्त में अपनी बज्जो को एक बार फिर अदब से झुककर सलाम. मालिक हमारे परिवार की मोहब्बत को इसी तरह जन्म-जन्मांतर तक बरकरार रखे. इसी दोआ के साथ खुदा हाफिज.
आपका अनुज
चिन्मय गोकर्ण