Wednesday, June 30, 2010


एक जू-ए-दर्द...

एक जू-ए-दर्द दिल से जिगर तक रवा है आज
पिघला हुआ रगो में इक आतिश-फिशा है आज
लब सिल दिया है ता ना शिकायत करे कोई
लेकिन हर एक जख्म के मुंह में जबां है आज
तारीखियों ने घेर लिया है हयात को
लेकिन किसी का रू-ए-हासी दरमियां है आज
जीने का वक्त है यही मरने का वक्त है
दिल अपनी जिंदगी से बहुत शादामान है आज
हो जाता हूं शहीद हर अहल-ए-वफा के साथ
हर दास्तां-ए-इश्क मेरी दास्तां है आज
आये हैं किस निसहात से हम कत्लगाह में
जख्मों से दिल है चूर नजर गुल-फिशा है आज
जिंदानियो ने तोड़ दिया जुल्म का गुरूर
वो दब-दबा वो रौब-ए-हूकूमत कहां है आज

-अली सरदार जाफरी

Friday, June 25, 2010


मैं जहां तक तुम को बुलाता हूं...


मैं जहां तक तुम को बुलाता हूं, वहां तक आओ
मेरी नजरों से गुजर कर, दिल-ओ-जां तक आओ
फिर ये देखो कि, जमाने की हवा है कैसी
साथ मेरे, मेरे फिरदौस-ए-जवां तक आओ
तेग की तरह चलो छोड़ के आगोश-ए- नियाम
तीर की तरह से आगोश-ए-कमां तक आओ
फूल के गिर्द फिरो बाग में मानिंद-ए-नसीम
मिस्ल-ए-परवाना किसी शाम-ए-तपन तक आओ
लो वो सदियों के जहन्नम की हदें खत्म हुईं
अब है फिरदौस ही फिरदौस जहां तक आओ
छोड़ कर वहम-ओ-गुमान, हुस्न-ए-यकीं तक पहुंचो
पर यकीं से भी कभी वहम-ओ-गुमां तक आओ
अली सरदार जाफरी

Tuesday, June 22, 2010


इश्क की इंतेहा नहीं

इश्क की वाकई कोई इंतेहा नहीं होती. एक सच्चे आशिक को फनाइयत की कभी कोई फिक्र नहीं होती. और न ही होती है बका की चाहत. उसका जुड़ाव सिर्फ रूह से होता है. जिस्म उसके लिए कोई मायने नहीं रखता. अपने माशूक में वह कुल-ए-कायनात का तसव्वुर करता है. यह सब आसमानी मुहब्बत के लक्षण हैं. ऐसी ही आसमानी मुहब्बत के शायर हैं अली सरदार जाफरी साहब. वो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. उनकी शायरी के एक एक लफ्ज में इश्क और उसकी तासीर झलकती है. मेरे कुछ कहने से बेहतर है कि आप खुद ही इसे पढ़ लें...

तू मुझे इतना प्यार से मत देख
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
डूबती चांदनी सी लगती है
और मुझे इतनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पांवों के छाले
यूं दहकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नजर रहे ना रहे
कौन दश्त-ए-वफा में जलता है
तेरे दिल को खबर रहे ना रहे
तू मुझे इतना प्यार से मत देख

Wednesday, June 16, 2010


हमें न चाहो...

हमें न चाहो की हम बदनसीब हैं लोगों
हमारे चाहने वाले ज़िया नहीं करते
ये उनसे पूछो जो हमसे करीब हैं लोगों
खुशी के दिन कभी हमसे वफा नहीं करते
वो क्या डरेगा राहों के पत्थर की नोक से
तलवे खुजा रहा हो जो खंज़र की नोक से
बच्चा कदम ज़मीन पर रखते ही बेझिज्हक
कहता है कि मां की गोद में अब तक मैं कैद था
गोदी में लेके, ढांक के आंचल से आज तक
जो खून उसने मुझको पिलाया सफेद था
रहमत का तलबगार तो होना ही पड़ेगा
दामन के हर दाग़ को धोना ही पड़ेगा
हंसता हुआ दुनिया में तो आया कोई नहीं
पैदा जो हुआ है उसे रोना ही पड़ेगा
हमारे शहर की तारीख सिर्फ अंदाजा
किसी को यह नहीं मालूम कब हुआ आबाद
ये सारे मुल्क के शाहों का एक शहजादा
यहां जो धर्म भी आया सदा रहा आबाद
हमारे शहर की तहजीब भी पुरानी है
यहां पर सिर्फ वफा की हवाएं चलती हैं
ये रोशनी की जमीं प्यार की निशानी
हर एक दीप के पीछे दुआएं चलती है
- डॉ. नाजिम जाफरी

Saturday, June 12, 2010


मैं खयाल हूं किसी और का...

मैं खयाल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सरे-आईना मेरा अक्स है, पसे-आइना कोई और है
मैं किसी की दस्ते-तलब में हूं तो किसी की हर्फे-दुआ में हूं
मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है
अजब ऐतबार-ओ-बे-ऐतबार के दरम्यान है जिंदगी
मैं करीब हूं किसी और के, मुझे जानता कोई और है
तेरी रोशनी मेरे खद्दो-खाल से मुख्तलिफ तो नहीं मगर
तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है
तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं
तेरी दास्तां कोई और थी, मेरा वाकया कोई और है
वही मुंसिफों की रवायतें, वहीं फैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था, पर मेरी सजा कोई और है
कभी लौट आएं तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुईं,कि ये रास्ता कोई और है
जो मेरी रियाजत-ए-नीम-शब को सलीम सुबह न मिल सकी
तो फिर इसके माअनी तो ये हुए कि यहां खुदा कोई और है
-सलीम कौसर

Tuesday, June 8, 2010



तेरी याद में...
हमने काटी है तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुजरी है सितारों की बारातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती है दिल पर तेरी बातें अक्सर
हुस्न शाइस्ता-ए-तहजीब-ए-अलम है शायद
गमजदा लगती है क्यों चांदनी रातें अक्सर
हाल कहना है किसी से तो मुखातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर
इश्क रहजन न सही, इश्क के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बारातें अक्सर
हमसे इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर
- जाँ निसार अख्तर