Tuesday, August 3, 2010


वारिस का इंतजार

मुंशी प्रेमचंद के वंशजों को नहीं है विरासत की
फिक्र
सूना है स्मारक स्थल और वीरान पड़ा है धनपत राय का घर


जिसे सुन कर आती है शर्म....


कथा सम्राट की थाती को संजोने में वंशजों ने कभी नहीं दिखायी दिलचस्पी.
1956 में दिल्ली जा कर बसे तो फिर कभी लौट कर नहीं आए.
मुंशी जी के पौत्र आखिरी बार पांच साल पहले बनारस आये थे.
बेटों ने लमही का मकान नागरी प्रचारिणी को कर दिया था दान.
अब पोतों ने जन्मस्थली को वापस पाने के लिए शुरु की कवायद.
कहते हैं हमसे पूछ कर दान में नहीं दिया गया था लाखों का मकान.
31 जुलाई को जयंती पर कुछ संस्थाएं करती हैं रस्म अदायगी.

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं. जो किसी के काम न आ सके, मैं एक वो मुश्क-ए-गुबार हूं. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी इस गजल की एक एक पंक्तियां मेरे दर्द को बयान करती हैं. यह दीगर है कि बादशाह सलामत के लिखने की वजह कोई और थी और मेरा वाकया कोई और है. पर दर्द की तासीर एक है. मैं लमही में करीब सवा बिसवा जमीन पर बना एक मकान हूं. नहीं, नहीं. आप मुझे सिर्फ एक मकान ही नहीं कह सकते. क्योंकि मैं किसी आम आदमी की थाती नहीं हूं. मैं मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली हूं, इस लिए यकीनन पूरे देश के लिए एक धरोहर हूं. धरोहर इस लिए भी कि मैंने इस चहारदीवारी के भीतर कई कहानियों को जन्मते देखा है. मैं इस बात का गवाह रहा हूं कि साधारण सा दिखने वाला एक शख्स किसी असाधारण कहानी की प्रसव पीड़ा को कैसे झेलता है. उस दौरान उसकी फीलिंग्स कैसी होती है. धर्म, जाति, भाषा, बोली और क्षेत्र से ऊपर उठकर वह अपने पात्रों को किस तरह से गढ़ता और जीता है.
न किसी का हबीब हूं...
बादशाह सलामत ने लिखा कि ... न तो मैं किसी का हबीब हूं, न तो मैं किसी का रकीब हूं. जो बिगड़ गया वो नसीब हूं, जो उजड़ गया वो दयार हूं. आज मेरी हालत बिल्कुल ऐसी ही है. बाहरी मेन दरवाजे पर एक छोटा सा ताला जरूर लगा है पर इसकी कोई वकत नहीं है. पास में कुंए से लगे चबूतरे पर चढ़कर जो चाहे सो यहां आ जाता है. उसे यहां कुछ भी करने की इजाजत है. खुला परवाना इस लिए क्योंकि मेरे यहां कमरों के दरवाजे आपको हमेशा खुले मिलेंगे. खिड़कियों को भी कभी किसी ने बंद ही नहीं किया. इसकी वजह है कि कभी यहां मेरा कोई 'अपनाÓ आता ही नहीं. अब परायों से कोई क्या शिकायत करे. अच्छा है तो, बिगड़ा है तो. यह मेरी अपनी नियति है. हां, प्रेमचंद स्मारक से जुड़े सुरेशचन्द्र दूबे साल में एकाध बार यहां आकर साफ सफाई करा जाते हैं. उनके पास भी टाइम नहीं है. दरवाजा खुला होने के कारण विकास प्राधिकरण की कृपा से बनी मेरी लाल जमीन पर मिट्टी की पर्त जमीं है. बारिश का पानी छत पर जमा है. दरवाजे खराब हो रहे हैं. अभी मेरे कमरों में पांडेयपुर चौराहे से उखड़ कर आये शिलापट्ट और पत्थरों पर उकेरे गये मुंशी जी के कथा पात्र रखे पड़े हैं. इस लिए मैं अभी घर कम गोदाम ज्यादा लग रहा हूं.
मेरा रंग रूप बिगड़ गया...
बहादुर शाह जफर ने अपने लिए लिखा था... मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया. जो चमन फिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ल-ए-बहार हूं. आपको बताऊं कि आज मैं आपको जैसा दिख रहा हूं, वैसा पहले नहीं था. आज आपको जिस मकान को दिखा कर बताया जाता है कि यह कथा सम्राट मुंशी जी की जन्मस्थली है, दरअसल वो बखरी हुआ करती थी. यहां घर के जानवरों को बांधा जाता था. प्रेमचंद जी की जन्म स्थली को तो उनके स्मारक में मिला दिया गया. वो कमरा ही जमींदोज हो गया जहां मेरे मालिक की पैदाइश हुई थी. स्मारक के दक्षिण पश्चिम कोने में दीवार से लगा पत्थर का जो सोफा पड़ा है, वही वो जगह है जहां हिन्दी कहानियों के प्रणेता ने जन्म लिया था. मेरे मालिक के इस दुनिया से निकल लेने के बाद मेरी वो छीछालेदर हुई है कि उसका बयान करना मुश्किल है.
पढ़े फातिहा कोई आये क्यों...
बहादुर शाह की गजल के इस शेर में दर्द अपने चरम पर है... पढ़े फातिहा कोई आये क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं. कोई आके शम्मा जलाए क्यूं, मैं वो बेकसी का मजार हूं. मेरा अपना दर्द कुछ ऐसा ही है. मेरे अपनों ने अपनी जिंदगी से मुझे कुछ ऐसा बेदखल किया कि अब मुझे अपना कहने वाला कोई नहीं रहा. 1936 में मुंशी जी के निधन के बाद लोगों का मेरे यहां आना जाना कम हो गया. आपको यह बताते हुए मुझे शर्मिन्दगी हो रही है कि मेरी ही गोद में पैदा हो कर परवरिश पाने वाले मुंशी जी के वारिसों के लिए मैं बोझ हो गया था. 1956 के बाद तो यहां कोई आया ही नहीं. साज संभाल मुश्किल हो जाने के कारण उन्होंने 1958 में मुझे नागरी प्रचारिणी को दान कर दिया. अफसोस हिन्दी की झंडाबरदार इस संस्था ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया और 2006 में मुझे सरकार के हाथ में सौंप दिया. अब इन सबको मेरी कोई फिक्र नहीं है. हो भी क्यों? मैं कोई रायल्टी कमाने का जरिया थोड़ी हूं. मेरा अपना कोई यहां दिया बत्ती के लिए भी कभी नहीं आता. मेरे मालिक की जयंती पर भी नहीं.
मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां...
बादशाह ने लिखा था... मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां, मुझे सुन के कोई करेगा क्या. मैं बड़े बरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुख की पुकार हूं. वाकई में आज मेरे बारे में कोई सुन के क्या करेगा? पर मेरी चाहत है की कोई मेरी सुने. मैं एक दर्दभरी दास्तां हूं. मेरी यह चाहत सरकार या सिस्टम से ही नहीं है. हर उस शख्स से है जिसने कभी मुंशी जी को पढ़ा हो. बूढ़ी काकी से लेकर होरी तक के दर्द का जिन्हें एहसास हो. घीसू और माधो के चरित्र को समझा हो. वैसे तो लोग कहते हैं कि कल कभी नहीं आता लेकिन मैंने अपने कल से ढेर सारी उम्मीदें पाल रखीं हैं. वो जरूर आएगा.

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