Tuesday, December 21, 2010



अवधूता युगन युगन

हम योगी...



घर की दहलीज पर जीर्णशीर्ण साइकिल को झाड़ते पोंछते मुसद्दी भाई बड़े तन्मय भाव से निर्गुन गा रहे थे. अवधूता युगन युगन हम योगी, आवै ना जाये मिटै ना कबहूं, सबद अनाहत भोगी. वे अपने में इतने मगन थे कि उन्हें मेरे आने की आहट तक नहीं लगी. मैंने कहा, भाई क्या बात है? बहुत रूहानी हुए जा रहे हैं? अचानक उनके हाथ थम गये. ऐनक नाक पर चढ़ायी. फिर एक लम्बी सांस ली. बोले, इस फानी दुनिया में दिल लगाने के लिए आखिर रखा क्या है मेरे भाई? मैं समझ गया था, कहीं गहरी चोट खा बैठे हैं. मैंने कहा, भाई आप ठीक कह रहे हैं पर यह फानी दुनिया भी है बड़ी रंगीन. किसिम किसिम के लोग, किसिम किसिम की बातें. यू शूड एंजॉय ऑल दीस थिंग्स. सोच में स्प्रीचुएलिटी होना अच्छी बात है पर दुनियावी जिंदगी में, वह भी आज के दौर में उस पर अमल करना बड़ा मुश्किल होता है भाई. इतना सुनते ही वो थोड़ा जज्बाती हो गये. कहा, दोस्त दौर को आज और कल के खांचे में बांट कर दुनिया को अपने चश्मे से देखने का तुम लोगों का यह तरीका बड़ा अच्छा है. चित भी मेरी पट भी मेरी. मैंने कहा, छोड़ो भाई इस पर फिर कभी और बहस होगी. पर साठे में पाठा वाली ये बात मुझे कुछ हजम नहीं हो रही है. मैंने बाबा आदम के जमाने की साइकिल और उनकी अपनी काया की तरफ इशारा किया. भाई अपनी स्टाइल में मुस्कुराए. कहने लगे, बच्चा तुम्हारी साइंस चाहे जितनी तरक्की कर ले लौटना हमें पुराने वक्त में ही है.मैं भी ठहरा एक कुतर्की. बोला भाई, आप हमेशा कुछ अलग ही राग गाते हो. तमाम आटो मोबाइल कम्पनीज हर रोज एक से एक नये मॉडल लॉन्च कर रही है. उसमें से कोई एक सेलेक्ट करने के बजाय आप साइकिल पोछ रहे हैं. चुपचाप मेरी बातों को सुन रहे मुसद्दी भाई अचानक तुनक गये. गाड़ी तो मैं आज ले लूं पर मुआ पेट्रोल कहां से लाऊंगा. दोस्त चीजें खरीदना आसान है पर उसका और उसके हिसाब से खुद को मेंटेन रखना सबके बस में नहीं है. रही बात पेट्रोल की, ये भी कुछ अजीब शै है. पहले लोग 'तेल देखो, तेल की धार देखोÓ को मुहावरे में सुनते थे. लेकिन अब ये चंद जुमले एक कॉमन मैन की जिंदगी में कुछ इस तरह से रच बस गये हैं कि लोग इसे फ्रेज में इस्तेमाल करना ही भूल गये. तुम्हें बतायें बरखुरदार कि ये जो पेट्रोल है ना, वो गरीब की बेटी की तरह हर दिन बढ़ती जाती है. उसके बढऩे की गति भी कुछ इस कदर है कि लगता है कुछ दिनों बाद लोग तस्वीरों में ही डीजल और पेट्रोल की धार देख सकेंगे. मुसद्दी भाई आदत के मुताबिक बोले चले जा रहे थे. तुमने गाड़ी की बात की है ना. चलो मैं तुम्हे एक किस्सा सुनाता हूं. अभी कल ही पेट्रोल पम्प पर एक नौजवान एक ब्रान्ड न्यू बाइक पर सवार हो कर कुछ इस तरह पहुंचा कि सबकी निगाहें उसे ही घूरने लगी. मैंने भी भरपूर निगाह से उसे देखा. तभी किसी ने उससे पूछ लिया, अमां कितने में पड़ी यह ...रिश्मा? नौजवान ने ऐंठ कर जवाब दिया 80 हजार की. एसेसिरीज अलग से. इसके साथ ही काना फंूसी होने लगी. अरे यार, दस बीस और मिला कर लखटकिया ले लेते. जितने लोग, उतने तरह की बात. अब तुम्हें क्या बताएं मेरे भाई उस नौजवान ने अपनी ...रिश्मा की सबके बीच में नाक कटवा दी. जानते हो उस 80 हजारा गाड़ी में उसने पेट्रोल कितने का भरवाया? सिर्फ 20 रूपए का! अब तुम ही बताओ कि इससे क्या साबित होता है, यही ना गाड़ी तो आप एक बार किसी तरह खरीद लोगे लेकिन फ्यूल को अपने बजट के समीकरण में फिट करना हर किसी के बस में नहीं है.देर से भाई की बातें सुनता हुआ मैं भी उकता रहा था. बोला, प्राइज हाइक के साथ इनकम भी तो बढ़ी है? भाई फट पड़े, क्या बकवास कर रहे हो. ले आओ कैलकुलेटर और कर लो हिसाब किताब. पिछले दस सालों में जिन्सों के दाम जितने बढ़े उनकी तुलना आमदनी के साथ कर लो फिर बात करना. तमाम चीजों के रेट घटने बढऩे का असर किसी पर पड़ता है तो किसी पर नहीं. लेकिन पेट्रोल डीजल के दाम बढ़ते ही अच्छे अच्छों का कद घटने लगता है. बेटा मैंने भी थोड़ा बहुत कौटिल्य का अर्थशास्त्र पढ़ा है, अगर गलत कह रहा हूं तो बताओ? चलो अब इस साइकिल के दिन बहुरने का राज तुम्हें बता ही देते हैं. मैंने सोचा है कल से मिट्ठू की अम्मा को पीछे बैठा कर टहलाया घुमाया करूंगा. कटीली मुस्कान फेंक कर बोले, जानते हो इससे एक तो यह होगा कि थोड़ी सेविंग हो जाएगी तो दूसरे फ्लैश बैक से बीते हुए दिन याद कर हम भी थोड़ा रूमानी हो जाएंगे.मैंने देखा, भाई कहीं दूर हसीन ख्वाबों में खोये हुए गा रहे थे ... सभी ठौर जमात हमरी, सब ही ठौर पर मेला. हम सब माय, सब है हम माय, हम है बहुरी अकेला. हम ही सिद्ध, समाधि हम ही हम मौनी हम बोले. रूप सरूप अरूप दिखा के हम ही हम तो खेले. कहे कबीर सुनो भाई साधो नाही न कोई इच्छा, अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं, खेलूं सहज स्वेच्छा.


सचिन, तुझे सलाम !


उसके चेहरे की मासूमियत देख कोई नहीं कह सकता कि ये बंदा तीस पार की उम्र में चल रहा है. हिन्दी हो या इंग्लिश, लैंग्वेज पर उसकी जबर्दस्त कमांड को देख शायद आप समझेंगे कि वो किसी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर है पर बहुत कम लोगों को पता है कि वो ग्रेजुएट भी नहीं है. उसकी स्टाइलिश वियरिंग्स या बॉडी लैंग्वेज देख कोई अंदाजा नहीं लगा सकता कि सामने वाला एक जमाने में किसी मिडिल क्लास फैमिली को बिलॉन्ग करता था. फैमिली कहने के साथ याद आया अपनी वाइफ के साथ उसकी केमेस्ट्री इतनी बेहतरीन है कि आप को एहसास ही नहीं होगा कि वो अपनी बेटर हाफ से तकरीबन पांच साल छोटे हैं. दोनों का मैच्योर बिहेवियर इस बात की तस्दीक करता है कि वे अपनी सोशल रिस्पॉन्सबिलिटीज को लेकर कितने कमिटेड हैं. ये सब उनकी जिदंगी का एक हिस्सा है. जहां फीलिंग्स हैं, सेंटिमेंट्स हैं और है हम्बलनेस.उनकी लाइफ का एक अदर साइड है जिसमें सिर्फ और सिर्फ डेटाज हैं. मिनट दर मिनट का हिसाब है. घंटे से बढ़ते हुए दिन में, फिर साल में और फिर डिकेड््स में तब्दील होते इन डेटाज को रिकॉर्ड बुक समेट नहीं पा रहे हैं. आज उस शख्स के बारे में इतना सब कुछ लिखे जाने की वजह भी ये डेटाज ही हैं. उनका कोई हिसाब किताब दस बीस में नहीं होता, सैकड़े में होता है. इस सैकड़े का लेखा जोखा भी वो अब हाफ सेंचुरीज में करने लगे हैं. उम्र के एक खास पड़ाव पर आने के बाद जहां लोग टेन टू फाइव की ड्यूटी करना पसंद करते हों 11 लोगों से ये आदमी मैदान पर कई कई घंटे अकेले जूझता रहता है. जाने कितने हजार शॉर्ट पिच, बीमर और बाउंसर जैसे मिसाइल्स झेल चुके इस बंदे का जिस्म भी अब लगता है कि अग्नि पिंड बन चुका है. उसकी इन्हीं सब खासियतों को देख लोग उन्हें भगवान कहते हैं पर विनम्रता की यह प्रतिमूर्ति नीली छतरी वाले का शुक्राना अदा करता नहीं अघाता. क्या हमें बताने की जरूरत है कि वो है कौन? ऐ सचिन तेन्दुलकर सेंचुरीज की हाफ सेंचुरी पर यह धरा तुम्हे झुक कर सलाम करती है.

Saturday, October 2, 2010


O' my soul
If a thousand enemies are intent on my demise
With you as my friend, fear won't arise.
I'm alive with the hope of union with thee
Every moment I fear death, otherwise.
Breath by breath, your scented breeze I must inhale
Moment by moment, from sorrows exhale my cries.
Only dreaming of you, go to sleep my two eyes
Patiently longing for thee, my heart to itself lies.
Don't pull away your rein when you cut me with your sword
My head is my shield, while my hand your saddle-strap ties.
Where can we see your face just as you are, true and pure?
Each based on his own grasp can realize.
Indigent Hafiz is the apple of people's eyes
At your door, prostrated, your vision espies.
Hafiz Shirazi

Monday, September 27, 2010


किया इरादा तुझे भुलाने का ...


किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज्र ही कोई मगर ठिकाने का
ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का
ये आंख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का
वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का
ज़मीं पे किस लिए ज़ंजीर हो गये साये
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

- शहरयार

Wednesday, August 4, 2010

फकीर बन कर तुम उनके दर पर

फकीर बन कर तुम उनके दर पर हजार धुनि रमा के बैठो
जबीं के लिक्खे को क्या करोगे जबीं का लिक्खा मिटा के देखो
ऐ उनकी महफिल में आने वालों ऐ सूदो सौदा बताने वालों
जो उनकी महफिल में आ के बैठो तो, सारी दुनिया भुला के बैठो
बहुत जताते हो चाह हमसे, मगर करोगे निबाह हमसे
जरा मिलाओ निगाह हमसे, हमारे पहलू में आके बैठो
जुनूं पुराना है आशिकों का जो यह बहाना है आशिकों का
वो इक ठिकाना है आशिकों का हुज़ूर जंगल में जा के बैठो
हमें दिखाओ न जर्द चेहरा लिए यह वहशत की गर्द चेहरा
रहेगा तस्वीर-ए-दर्द चेहरा जो रोग ऐसे लगा के बैठो
जनाब-ए-इंशा ये आशिकी है जनाब-ए-इंशा ये जिंदगी है
जनाब-ए-इंशा जो है यही है न इससे दामन छुड़ा के बैठो
इब्ने इंशा

Tuesday, August 3, 2010


वारिस का इंतजार

मुंशी प्रेमचंद के वंशजों को नहीं है विरासत की
फिक्र
सूना है स्मारक स्थल और वीरान पड़ा है धनपत राय का घर


जिसे सुन कर आती है शर्म....


कथा सम्राट की थाती को संजोने में वंशजों ने कभी नहीं दिखायी दिलचस्पी.
1956 में दिल्ली जा कर बसे तो फिर कभी लौट कर नहीं आए.
मुंशी जी के पौत्र आखिरी बार पांच साल पहले बनारस आये थे.
बेटों ने लमही का मकान नागरी प्रचारिणी को कर दिया था दान.
अब पोतों ने जन्मस्थली को वापस पाने के लिए शुरु की कवायद.
कहते हैं हमसे पूछ कर दान में नहीं दिया गया था लाखों का मकान.
31 जुलाई को जयंती पर कुछ संस्थाएं करती हैं रस्म अदायगी.

न किसी की आंख का नूर हूं, न किसी के दिल का करार हूं. जो किसी के काम न आ सके, मैं एक वो मुश्क-ए-गुबार हूं. आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की लिखी इस गजल की एक एक पंक्तियां मेरे दर्द को बयान करती हैं. यह दीगर है कि बादशाह सलामत के लिखने की वजह कोई और थी और मेरा वाकया कोई और है. पर दर्द की तासीर एक है. मैं लमही में करीब सवा बिसवा जमीन पर बना एक मकान हूं. नहीं, नहीं. आप मुझे सिर्फ एक मकान ही नहीं कह सकते. क्योंकि मैं किसी आम आदमी की थाती नहीं हूं. मैं मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली हूं, इस लिए यकीनन पूरे देश के लिए एक धरोहर हूं. धरोहर इस लिए भी कि मैंने इस चहारदीवारी के भीतर कई कहानियों को जन्मते देखा है. मैं इस बात का गवाह रहा हूं कि साधारण सा दिखने वाला एक शख्स किसी असाधारण कहानी की प्रसव पीड़ा को कैसे झेलता है. उस दौरान उसकी फीलिंग्स कैसी होती है. धर्म, जाति, भाषा, बोली और क्षेत्र से ऊपर उठकर वह अपने पात्रों को किस तरह से गढ़ता और जीता है.
न किसी का हबीब हूं...
बादशाह सलामत ने लिखा कि ... न तो मैं किसी का हबीब हूं, न तो मैं किसी का रकीब हूं. जो बिगड़ गया वो नसीब हूं, जो उजड़ गया वो दयार हूं. आज मेरी हालत बिल्कुल ऐसी ही है. बाहरी मेन दरवाजे पर एक छोटा सा ताला जरूर लगा है पर इसकी कोई वकत नहीं है. पास में कुंए से लगे चबूतरे पर चढ़कर जो चाहे सो यहां आ जाता है. उसे यहां कुछ भी करने की इजाजत है. खुला परवाना इस लिए क्योंकि मेरे यहां कमरों के दरवाजे आपको हमेशा खुले मिलेंगे. खिड़कियों को भी कभी किसी ने बंद ही नहीं किया. इसकी वजह है कि कभी यहां मेरा कोई 'अपनाÓ आता ही नहीं. अब परायों से कोई क्या शिकायत करे. अच्छा है तो, बिगड़ा है तो. यह मेरी अपनी नियति है. हां, प्रेमचंद स्मारक से जुड़े सुरेशचन्द्र दूबे साल में एकाध बार यहां आकर साफ सफाई करा जाते हैं. उनके पास भी टाइम नहीं है. दरवाजा खुला होने के कारण विकास प्राधिकरण की कृपा से बनी मेरी लाल जमीन पर मिट्टी की पर्त जमीं है. बारिश का पानी छत पर जमा है. दरवाजे खराब हो रहे हैं. अभी मेरे कमरों में पांडेयपुर चौराहे से उखड़ कर आये शिलापट्ट और पत्थरों पर उकेरे गये मुंशी जी के कथा पात्र रखे पड़े हैं. इस लिए मैं अभी घर कम गोदाम ज्यादा लग रहा हूं.
मेरा रंग रूप बिगड़ गया...
बहादुर शाह जफर ने अपने लिए लिखा था... मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया. जो चमन फिजां में उजड़ गया, मैं उसी की फस्ल-ए-बहार हूं. आपको बताऊं कि आज मैं आपको जैसा दिख रहा हूं, वैसा पहले नहीं था. आज आपको जिस मकान को दिखा कर बताया जाता है कि यह कथा सम्राट मुंशी जी की जन्मस्थली है, दरअसल वो बखरी हुआ करती थी. यहां घर के जानवरों को बांधा जाता था. प्रेमचंद जी की जन्म स्थली को तो उनके स्मारक में मिला दिया गया. वो कमरा ही जमींदोज हो गया जहां मेरे मालिक की पैदाइश हुई थी. स्मारक के दक्षिण पश्चिम कोने में दीवार से लगा पत्थर का जो सोफा पड़ा है, वही वो जगह है जहां हिन्दी कहानियों के प्रणेता ने जन्म लिया था. मेरे मालिक के इस दुनिया से निकल लेने के बाद मेरी वो छीछालेदर हुई है कि उसका बयान करना मुश्किल है.
पढ़े फातिहा कोई आये क्यों...
बहादुर शाह की गजल के इस शेर में दर्द अपने चरम पर है... पढ़े फातिहा कोई आये क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं. कोई आके शम्मा जलाए क्यूं, मैं वो बेकसी का मजार हूं. मेरा अपना दर्द कुछ ऐसा ही है. मेरे अपनों ने अपनी जिंदगी से मुझे कुछ ऐसा बेदखल किया कि अब मुझे अपना कहने वाला कोई नहीं रहा. 1936 में मुंशी जी के निधन के बाद लोगों का मेरे यहां आना जाना कम हो गया. आपको यह बताते हुए मुझे शर्मिन्दगी हो रही है कि मेरी ही गोद में पैदा हो कर परवरिश पाने वाले मुंशी जी के वारिसों के लिए मैं बोझ हो गया था. 1956 के बाद तो यहां कोई आया ही नहीं. साज संभाल मुश्किल हो जाने के कारण उन्होंने 1958 में मुझे नागरी प्रचारिणी को दान कर दिया. अफसोस हिन्दी की झंडाबरदार इस संस्था ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया और 2006 में मुझे सरकार के हाथ में सौंप दिया. अब इन सबको मेरी कोई फिक्र नहीं है. हो भी क्यों? मैं कोई रायल्टी कमाने का जरिया थोड़ी हूं. मेरा अपना कोई यहां दिया बत्ती के लिए भी कभी नहीं आता. मेरे मालिक की जयंती पर भी नहीं.
मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां...
बादशाह ने लिखा था... मैं नहीं हूं नग्मा-ए-जांफिशां, मुझे सुन के कोई करेगा क्या. मैं बड़े बरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुख की पुकार हूं. वाकई में आज मेरे बारे में कोई सुन के क्या करेगा? पर मेरी चाहत है की कोई मेरी सुने. मैं एक दर्दभरी दास्तां हूं. मेरी यह चाहत सरकार या सिस्टम से ही नहीं है. हर उस शख्स से है जिसने कभी मुंशी जी को पढ़ा हो. बूढ़ी काकी से लेकर होरी तक के दर्द का जिन्हें एहसास हो. घीसू और माधो के चरित्र को समझा हो. वैसे तो लोग कहते हैं कि कल कभी नहीं आता लेकिन मैंने अपने कल से ढेर सारी उम्मीदें पाल रखीं हैं. वो जरूर आएगा.

Thursday, July 1, 2010


तुम्हारी अंजुमन से उठ के

तुम्हारी अंजुमन से उठ के दीवाने कहाँ जाते
जो वाबस्ता हुए, तुमसे,वो अफ़साने कहाँ जाते
निकलकर दैरो-काबा से अगर मिलता न मैख़ाना
तो ठुकराए हुए इंसाँ खुदा जाने कहाँ जाते
तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादाखाने की
तुम आँखों से पिला देते तो पैमाने कहाँ जाते
चलो अच्छा काम आ गई दीवानगी अपनी
वरना हम जमाने-भर को समझाने कहाँ जाते
क़तील अपना मुकद्दर ग़म से बेगाना अगर होता
तो फिर अपने पराए हम से पहचाने कहाँ जाते

-कतील शिफाई

Wednesday, June 30, 2010


एक जू-ए-दर्द...

एक जू-ए-दर्द दिल से जिगर तक रवा है आज
पिघला हुआ रगो में इक आतिश-फिशा है आज
लब सिल दिया है ता ना शिकायत करे कोई
लेकिन हर एक जख्म के मुंह में जबां है आज
तारीखियों ने घेर लिया है हयात को
लेकिन किसी का रू-ए-हासी दरमियां है आज
जीने का वक्त है यही मरने का वक्त है
दिल अपनी जिंदगी से बहुत शादामान है आज
हो जाता हूं शहीद हर अहल-ए-वफा के साथ
हर दास्तां-ए-इश्क मेरी दास्तां है आज
आये हैं किस निसहात से हम कत्लगाह में
जख्मों से दिल है चूर नजर गुल-फिशा है आज
जिंदानियो ने तोड़ दिया जुल्म का गुरूर
वो दब-दबा वो रौब-ए-हूकूमत कहां है आज

-अली सरदार जाफरी

Friday, June 25, 2010


मैं जहां तक तुम को बुलाता हूं...


मैं जहां तक तुम को बुलाता हूं, वहां तक आओ
मेरी नजरों से गुजर कर, दिल-ओ-जां तक आओ
फिर ये देखो कि, जमाने की हवा है कैसी
साथ मेरे, मेरे फिरदौस-ए-जवां तक आओ
तेग की तरह चलो छोड़ के आगोश-ए- नियाम
तीर की तरह से आगोश-ए-कमां तक आओ
फूल के गिर्द फिरो बाग में मानिंद-ए-नसीम
मिस्ल-ए-परवाना किसी शाम-ए-तपन तक आओ
लो वो सदियों के जहन्नम की हदें खत्म हुईं
अब है फिरदौस ही फिरदौस जहां तक आओ
छोड़ कर वहम-ओ-गुमान, हुस्न-ए-यकीं तक पहुंचो
पर यकीं से भी कभी वहम-ओ-गुमां तक आओ
अली सरदार जाफरी

Tuesday, June 22, 2010


इश्क की इंतेहा नहीं

इश्क की वाकई कोई इंतेहा नहीं होती. एक सच्चे आशिक को फनाइयत की कभी कोई फिक्र नहीं होती. और न ही होती है बका की चाहत. उसका जुड़ाव सिर्फ रूह से होता है. जिस्म उसके लिए कोई मायने नहीं रखता. अपने माशूक में वह कुल-ए-कायनात का तसव्वुर करता है. यह सब आसमानी मुहब्बत के लक्षण हैं. ऐसी ही आसमानी मुहब्बत के शायर हैं अली सरदार जाफरी साहब. वो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. उनकी शायरी के एक एक लफ्ज में इश्क और उसकी तासीर झलकती है. मेरे कुछ कहने से बेहतर है कि आप खुद ही इसे पढ़ लें...

तू मुझे इतना प्यार से मत देख
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
डूबती चांदनी सी लगती है
और मुझे इतनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पांवों के छाले
यूं दहकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नजर रहे ना रहे
कौन दश्त-ए-वफा में जलता है
तेरे दिल को खबर रहे ना रहे
तू मुझे इतना प्यार से मत देख

Wednesday, June 16, 2010


हमें न चाहो...

हमें न चाहो की हम बदनसीब हैं लोगों
हमारे चाहने वाले ज़िया नहीं करते
ये उनसे पूछो जो हमसे करीब हैं लोगों
खुशी के दिन कभी हमसे वफा नहीं करते
वो क्या डरेगा राहों के पत्थर की नोक से
तलवे खुजा रहा हो जो खंज़र की नोक से
बच्चा कदम ज़मीन पर रखते ही बेझिज्हक
कहता है कि मां की गोद में अब तक मैं कैद था
गोदी में लेके, ढांक के आंचल से आज तक
जो खून उसने मुझको पिलाया सफेद था
रहमत का तलबगार तो होना ही पड़ेगा
दामन के हर दाग़ को धोना ही पड़ेगा
हंसता हुआ दुनिया में तो आया कोई नहीं
पैदा जो हुआ है उसे रोना ही पड़ेगा
हमारे शहर की तारीख सिर्फ अंदाजा
किसी को यह नहीं मालूम कब हुआ आबाद
ये सारे मुल्क के शाहों का एक शहजादा
यहां जो धर्म भी आया सदा रहा आबाद
हमारे शहर की तहजीब भी पुरानी है
यहां पर सिर्फ वफा की हवाएं चलती हैं
ये रोशनी की जमीं प्यार की निशानी
हर एक दीप के पीछे दुआएं चलती है
- डॉ. नाजिम जाफरी

Saturday, June 12, 2010


मैं खयाल हूं किसी और का...

मैं खयाल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सरे-आईना मेरा अक्स है, पसे-आइना कोई और है
मैं किसी की दस्ते-तलब में हूं तो किसी की हर्फे-दुआ में हूं
मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है
अजब ऐतबार-ओ-बे-ऐतबार के दरम्यान है जिंदगी
मैं करीब हूं किसी और के, मुझे जानता कोई और है
तेरी रोशनी मेरे खद्दो-खाल से मुख्तलिफ तो नहीं मगर
तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है
तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं
तेरी दास्तां कोई और थी, मेरा वाकया कोई और है
वही मुंसिफों की रवायतें, वहीं फैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था, पर मेरी सजा कोई और है
कभी लौट आएं तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुईं,कि ये रास्ता कोई और है
जो मेरी रियाजत-ए-नीम-शब को सलीम सुबह न मिल सकी
तो फिर इसके माअनी तो ये हुए कि यहां खुदा कोई और है
-सलीम कौसर

Tuesday, June 8, 2010



तेरी याद में...
हमने काटी है तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुजरी है सितारों की बारातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती है दिल पर तेरी बातें अक्सर
हुस्न शाइस्ता-ए-तहजीब-ए-अलम है शायद
गमजदा लगती है क्यों चांदनी रातें अक्सर
हाल कहना है किसी से तो मुखातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर
इश्क रहजन न सही, इश्क के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बारातें अक्सर
हमसे इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर
- जाँ निसार अख्तर

Monday, May 31, 2010



मिसाल इसकी कहां है....
मिसाल इसकी कहां है जमाने में
कि सारे खोने के गम पाये हमने पाने में
वो शक्ल पिघली तो हर शै में ढल गयी जैसे
अजीब बात हुई है उसे भुलाने में
जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा
कि हमने देर लगा दी पलट के आने में
लतीफ था वो तखय्युल से, ख्वाब से नाजुक
गंवा दिया उसे हमने ही आजमाने में
समझ लिया था कभी एक सराब को दरिया
पर एक सुकून था हमको फरेबखाने में
झुका दरख्त हवा से, तो आंधियों ने कहा
ज्यादा फर्क नहीं झुक के टूट जाने में
- जावेद अख्तर

Thursday, April 15, 2010



ऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए...
कई बार पढऩे के लिए कोई चीज ऐसी मिल जाती है जिसकी कैफियत अर्से तक तारी रहती है। नशे की खुमार में कई कई दिन गुजर जाते हैं और आपको इसका एहसास तक नहीं होता. ऐसा ही कुछ इस पर्शियन गजल के साथ भी है. इसे गजल नहीं आसमानी शराब की सुराही कहा जाना चाहिए. पैमाने में पीने के बजाए अगर इसे चुल्लू दर चुल्लू पिया जाए तो वो मस्ती चढ़े जिसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. हमने सोचा की ऐसी नायाब चीज से यह कायनात वंचित क्यों रहे? सो इस गजल के तीनों वर्जन मतलब पर्शियन, इंग्लिश और उर्दू यहां आपकी नजर कर रहा हूं. अच्छा लगे तो कमेंट जरूर करिएगा.




Paimona Bideh Ki Khumaar Astam..Paimona Bideh Ki Khumaar Astam..Man Aashiq-e Chashm-e Mast-e-Yarastam..Man Aashiq-e Chashm-e Mast-e-Ya...rastam..Bidee Bidee Ki Khumoor Astam..Paimona Bideh Ki Khumaar Astam..
Chasmat Ke Bagh e Khutan Mein Mula..Royat Mu Khula Phai Chaman Mein Mula...Gul Robae Kunay Tharak Warak Muay KhunayMulalaay Zaray Bay Watan Miyayarat.......
Paimona Bideh Ki Khumaar AstamPaimona Bideh Ki Khumaar Astam..Man Aashiq-e Chashm-e Mast-e-YarastamMan Aashiq-e Chashm-e Mast-e-Ya...rastamBideh Bideh Ki Khumaar Astam....Paimona Bideh Ki Khumaar Astam....
Azumadanay Tagar Khabar Mein Dashtan...Peshae Ka Damat Kocha Ragul Mein Khushthan...Tol May Khushtam Gul e Gulaab Mein Khushtan..Khakay Ka Damat Khaday Gamay Wadashatan...Paimona Bideh...
Paimona Bideh...Paimona Bideh... Ki Khumaar AstamPaimona Bideh Ki Khumaar Astam..Man Aashiq-e Chashm-e Mast-e-YarastamMan Aashiq-e Chashm-e Mast-e-Ya....rastamBideh Bideh... Wang WangBideh Bideh... Why.. Why WhyBideh Bideh Ki Khumoor AstamPaimona Bideh Ki Khumaar....... Astam

English Translation:
Bring me the glass so I may lose myselfBring me the glass so I may lose myselfI am in love with my beloved's intoxicating eyesI am in love with my beloved's intoxicating eyesBring, bring so i may lose myselfBring me the glass so I may lose myself
Your eyes light up the garden of KhutanYour face lights up the roses in the gardensFace like a flower, it gives petals their fragranceThe Land of my beloved is Lalazar
Bring me the glass so I may lose myselfBring me the glass so I may lose myselfI am in love with my beloved's intoxicating eyesI am in love with my beloved's intoxicating eyesBring, bring so i may lose myselfBring me the glass so I may lose myself
If I hear of your arrivalI will spread a carpet of flowers under your feetSpread flowers, spread rose flowersI will sacrifice myself at the dust of your feetBring the glass...
Bring the glass...
Bring me the glass so I may lose myselfI am in love with my beloved's intoxicating eyesI am in love with my beloved's intoxicating eyesBring, bring..Bring, bring..Bring, bring so i may lose myselfBring me the glass so I may lose myself

URDU Translation:




ऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए
मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूंमैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं
दे दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए
तेरी आंखें जिनसे बाग-ए-खुतन में रौनक हैतेरा चेहरा जिससे चमन के गुलाब में रौनक हैफूल सा चेहरा जिससे पत्ता-पत्ता महकता हैयार का वतन लालजार है
ऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए
मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूंमैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं
दे दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए
अगर तेरे आने की खबर मुझे मिलेमैं तेरे कदमों से पहले गली में फूल बिछाऊंफूल बिछाऊं, गुलाब के फूल बिछाऊंतेरे कदमों के खाक पर अपना आप वार दूं
ऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए
मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूंमैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं
दे दे की मुझे खुमार आ जाएऐसा जाम दे की मुझे खुमार आ जाए.

Wednesday, March 31, 2010

कोई सपनों के
दीप जलाये ...

एक गाना है. कहीं दूर जब दिन ढल जाये, सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये. मेरे ख्यालों के आंगन में कोई सपनों के दीप जलाये. इस गाने को कई बार आपने भी सुना होगा. मैंने भी कई बार सुना. पर एक दिन इस गाने के बोलों के साथ एक खयाल भी मन में आया कि वाकई हमारे और आपके मन का सूर्य जब ढलने लगता है, मन बुरी तरह से हताश और निराश सा हो जाता है तो कोई तो एक ऐसा है जो आकर हमारे और आपके मन में सपनों के दीये जला जाता है. आखिर वह है कौन? मन ने मन से ही सवाल पूछ दिया. कई दिनों की जद्दोजेहद और कई रातों की उधेड़बुन के बाद मन से जवाब भी मिला. जवाब था हताशा और निराशा की घड़ी में सपनों के दीप जलाने का काम कोई और नहीं हमारा मालिक करता है. कहते है कि ऐसी घड़ी में मालिक ही मन को कुंठा से उबारने का काम करता है. यहां मालिक से मेरा तात्पर्य आपके अपने इष्टï या गुरू से है. गुरू से सर्वोपरी इस दुनियां में कोई हुआ ही नहीं. गुरू की स्तुति के बगैर किसी भी तरह की आराधना या इबादत का कोई मतलब ही नहीं है. किसी ने सवाल खड़ा किया कि ऐसा क्यों ? इस पर जवाब आया कि गुरू में वह ईश्वरीय तत्व मौजूद है जो शिष्य को ईश्वर के घर की दहलीज तक पहुंचाने का काम करता है. फर्श से अर्शे आजम तक की सैर कराता है. अब शायद आप पूछ बैठें कि ईश्वर की पहचान हो तो कैसे हो? क्योंकि जब किसी ने उन्हें देखा ही नहीं तो हम उन्हें पहचानेंगे कैसे? इसका जवाब भी स्वयं गुरू है. यानि हमें गुरू में ही अपने ईश्वर या इष्टï का दर्शन करना चाहिए.
अब सबसे बड़ा सवाल है कि ईश्वर को देखा कैसे जाये? ईश्वर कोई दृश्यमान तो हैं नहीं. वह तो महसूस करने की एक ऐसी अनुभूती का नाम है जिसका वर्णन कभी किया ही नहीं जा सकता. दरअसल अल्लाह या भगवान हैं क्या? एक बार मैंने भी अपने आराध्य से यह सवाल पूछने की हिमाकत कर दी थी. सवाल बड़ा गहरा था. उस समय तो उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन एक लम्बी मुद्दत गुजरने के बाद एक दिन उन्होंने किसी और के श्रीमुख से मुझे उसका जवाब दिलवाया. देखिये जवाब भी मिला तो कितना वजनदार. कहा जब देवत्व के सारे गुण किसी एक मरकज में जमा मिले वही अल्लाह है वही भगवान है. जाहिर है कि वह और कोई नहीं, खुद हमारा गुरू ही होगा. गुरू से यहां मेरा मतलब किसी स्कूल या कक्षा में पढ़ाने वाले अध्यापक से नहीं है. यहां मेरा मतलब हमारी भावनाओं, हमारे तमाम स्नायु तंत्रों को नियंत्रित करने वाले हमारे आध्यात्मिक गुरू से है. गुरू से मेरा आशय उस हस्ती से है जो हमारे ध्यान का आधार है, जिसके श्रीचरण हमारी पूजा का अवलम्ब है, जिसके वचन हमारे जप-जिक्र हैं और जिसका फैज हमारे मोक्ष का द्वार है.
कहते हैं कि जब भी पूजा के लिए बैठा जाए तो सबसे पहले अपने गुरू की तस्वीर को खयाल में बांधा जाना चाहिए. या फिर यूं कहूं कि गुरू का तसव्वुर करना चाहिए. इतना ही नहीं गुरू के श्रीचरणों को ही अपनी पूजा का आधार बनाया जाना सर्वोत्तम होता है. शायद कहने की जरूरत नहीं है कि सदगुरू के वचन हमेशा सुभाषित होते हैं. इस लिए हमें उन्हें ही अपने जप-जिक्र का मूल बनाया जाना चाहिए. यकीन मानिये अगर हमनें इतना कर लिया तो गुरू का आशीर्वाद मिलना भी सुनिश्चित है. ऐसे में उनसे मिलने वाला फैज यानी आशीर्वाद ही हमारे मोक्ष का कारक बनेगा. गुरू की शान का बखान सुनना या पढऩा हो तो सूफी दर्शन का अध्ययन किया जाना चाहिए. सूफी वातायन पीर यानी गुरू को अल्लाह या खुदा से भी बढ़ कर मानता है. इस मत का मानना है कि किसी सदगुरू या बड़े पीर-फकीर के दुनिया में आमद होने की मुनादी एक सदी पहले से ही पीटी जाने लगती है. हजरत बड़े पीर दस्तगीर हजरत शेख अब्दुल कादिर जिलानी जिनका नाम स्मरण किये जाने मात्र से हमारा सिर बसजू अदब से झुक जाता है, के पैदाइश की खबर दुनिया में एक सदी से भी पहले लोगों को हो गयी थी. इतना ही नहीं उनके करामातों का भी लोगों को इलहाम हो गया था.
जिस तरह से दिन के बाद रात होना और रात ढलने के बाद नये शफकत के साथ आफताब यानी सूर्य का दीदार होना तयशुदा है उसी तरह हमारे जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख का आना एक हकीकत है. सुख की घड़ी में हम अपने ईश्वर का कभी स्मरण नहीं करते, पर संकट के लमहों में सिर्फ उसी को ध्याते हैं. होना यह चाहिए कि अच्छे दिनों की शुरूआत के साथ ही हमारे दिल में एक खौफ बैठ जाना चाहिए. यह खौफ सुख के बाद निश्चित रूप से आने वाले दुख देने वाले लमहों को लेकर होना चाहिए. उस वक्त हम मदद की गुहार लेकर अपने पास आने वाले लोगों को दुत्कारते हैं. उन्हें तरह-तरह की जली-कटी सुनाते हैं और खुद के बनाये ख्वाबों खयालों में डूबे रहते हैं. हम भूल जाते हैं कि अच्छे दिनों के ये लमहात एक मुकर्रर वक्त तक ही हमारे पास रहेंगे. इसके बाद वे अपना दूसरा ठिकाना ढूंढ़ लेंगे. फिर शुरू होगा गर्दिश का दौर. इस दौर का कोई वक्त मुकर्रर नहीं होता. कहते हैं कि अगर हमने अपने अच्छे वक्त में ठीक-ठाक काम किया हो तो इस काल को भी एक दायरे में बांधा जा सकता है या फिर गर्दिश की तपिश को कम किया जा सकता है. पर अच्छे वक्त के गुरूर में डूबा मनुष्य यह सब उस समय कहां सोच पाता है. उसे उस वक्त दुनिया अपनी मुठ्ठïी में और सारा देवत्व अपनी जेब में दिखायी पड़ता है. लेकिन मालिक की लीला भी अपरम्पार है. उसे आज तक कोई समझ नहीं सका. एक दिन मुठ्ठïी से रेत की मानिंद दुनिया खिसक जाती है और जेब की छेद से सारा देवत्व निकल जाता है. ऐसी घड़ी में मनुष्य को ईश्वर की बेतरह याद आती है. संकट से उबारने के लिए वह उन्हें पुकारता है. फिर से अच्छे दिनों को देने की गुजारिश करता है. न मिलने पर वह इसके लिए ईश्वर को दोषी ठहराता है और उन्हें कोसता है. वह अपने तमाम गुनाहों और कुकर्मो को भूल जाता है जो उससे अच्छे वक्त में जाने-अनजाने में हुए रहते हैं.
संकट के इस दौर में अगर मनुष्य को किसी सदगुरू की पनाह मिल गयी तो दिक्कतों की इस घड़ी को आसानी से काटा जा सकता है. मुश्किलातों के इस दौर को झेलना तो छोडिय़े इसके बारे में कुछ बयान कर पाना भी आसान नहीं है. कहते हैं जाके पैर न फटे बिवाइन, ऊ का जाने पीर पराई. यानी जिसके पैर में बिवाइन न फटी हो वह उस दर्द का अहसास कैसे कर सकता है. कहने का मुद्दा-ए-आलिया यह है कि परेशानियों से भरे इस दौर को हम अपने सदगुरू की कृपा से आसान बना सकते हैं. इसके लिए जरूरी है कि हमें एक सदगुरू मिले. अब आप शायद पूछें कि दुनिया में इतनी सारी तकलीफें क्यों है? दुख क्यों है? ऐसा ही एक सवाल भगवान गौतम बुद्ध से उनके एक शिष्य ने एक दिन पूछ लिया था. उसने पूछा कि हे तथागत! आप यह बतायें कि संसार में इतना असंतोष क्यों है? बहुत देर तक भगवान को भी इसका जवाब न सूझा, पर उन्होंने कदाचित सोच-विचार के बाद कहा कि भिक्षु! इसकी एक और अकेली वजह है तुलना. गौर करो मनुष्य हर घड़ी हर लमहा दूसरों से अपनी तुलना करता है. अपनी जरा सी कमी को वह बर्दाश्त नहीं करता. ऐसे में वह दिन रात ईष्र्या की आग में जलता है. दूसरों के लिए तमाम तरह के राग द्वेष पालता है. और यह राग द्वेष ही असंतोष का मूल है.
कितना माकूल जवाब था. हजारों साल बाद आज भी वह प्रासंगिक है. दरअसल आज लोगों में लोच (इलेस्टिीसिटी) नहीं है. आज लोग किसी भी कीमत पर किसी के भी आगे झुकना नहीं चाहते. बच्चे मां-बाप के आगे झुकना नहीं चाहते, पति-पत्नी एक दूसरे से दबना नहीं चाहते. कैसी अजीब विडम्बना है कि हमारे षोडष संस्कारों में भी खुद को मिट्टïी बना लेने या अपने अहंकार को खत्म कर लेने की बात कही गयी है, पर आज इसे मानता कौन है. अब आप देखिये कि वैवाहिक संस्कार के वक्त एक रस्म होती है, जिसे जयमाल कहते हैं. इस दौरान आपने देखा होगा कि जयमाल पहनने के लिए पहले वर वधू के सामने झुकता है. आखिर इसकी वजह क्या है?
गुजरे जमाने की बात है. एक दिन हमारे श्रद्धेय किसी की शादी में गये. लौट कर आने के बाद साथ गये अपने खादिम से उन्होंने पूछ ही लिया, का हो दीक्षित जी उहां का देखला? सबसे अच्छा का लगल? पुराना साथ होने की वजह से खादिम दोस्त जैसा हो गया था. उन्हें अव्वल तो कोई जवाब नहीं सूझा. सूझा भी तो लगा कि इन्हें रास नहीं आयेगा. सो कह बैठा, यार पहेलियां न बुझाओ, जो कहना है साफ- साफ कह डालो. तुम जुल्फें लहराते हो दुनिया का कलेजा मुंह को आता है. जानते हैं इस सवाल का जवाब उन्होंने क्या दिया. गुरूवर ने कहा, पंडित जी विवाह की सबसे अच्छी रस्म थी जयमाल. इसमें भी आपने देखा होगा कि सेहरा बांधा हुआ दूल्हा जयमाल पहनने के लिए दुल्हन के आगे पहले झुका. महाराज, इस रस्म में हमें यह बताया गया है कि दुल्हा दुल्हन के आगे इस लिए झुकता है, क्योंकि शक्ति के आगे ब्रह्मï झुका है. स्त्री शक्ति का पर्याय है और पुरूष ब्रह्मï का. विवाह दोनों के संयोग की घड़ी है. ऐसी पावन बेला में सवाल दोनों में किसके ज्यादे सामथ्र्यवान होने का नहीं है. सवाल दोनों के एक दूसरे के प्रति समर्पण या दोनों के व्यक्तित्व के लोच का होता है. वैसे भी पंडित जी स्त्री की शक्ति को भगवान भी पूजता है. सो पत्नी के रूप में स्वीकारने के पहले पुरूष स्त्री के आगे झुकता है. गुरूवर पूरी सुराही उडेल रहे थे और दीक्षित जी मदमस्त शराबी की तरह छक कर पी रहे थे. जाहिर है माहौल अपने शबाब पर था, पर अदब भी अंगद के पांव की तरह अपनी जगह अडिग था. गुरूवर बोलते चले जा रहे थे. पंडित जी, शादी के बाद बेटी की बिदाई के रस्म में भी गहरा रहस्य छिपा है. इस रस्म के साथ बेटी को फकीरी का पहला पाठ पढ़ाया गया है. इसमें वह अपने घर से निकलकर किसी गैर के घर जाती है. वहां वह गैरों को इस तरह अपना लेती है कि उन्हें अपने पराये का ख्याल भी नहीं आता.
दोस्तों इस तरह का जवाब जिस मुबारक जुबान से निकलेगा वह वाकई सदगुरू होगा. हमारा मालिक होगा. हताशा के दौर में उम्मीद के चराग रौशन करेगा. मुरादों की सूखती हुई कलियों को सरसब्ज करेगा. पर हमें इसके पहले यह समझ लेना चाहिए कि यह सब कुछ इतना आसान नहीं है, जितना कि दिखता है या पढऩे में लगता है. इन सबको जीवन में उतार पाना काफी मुश्किलों से भरा होता है. किसी ने कहा है कि यह बज्म ए इश्क है, वफा की महफिल है, यहां चिराग नहीं दिल जलाये जाते हैं. इसलिए आग के इस दरिया में उतरने से पहले दिल को मजबूत किये जाने की जरूरत होती है. आइये आज हम सब भी अपने आराध्य से मजहबे इश्क की राह में अपने लिए दिल की मजबूती, यकीन और यकदा को कायम रखने की ताकत, श्रद्धा और भक्ति के साथ सब्र देने की गुहार करें. मालिक हम सबकी मुरादों को पूरा करें.
आमीन.

Saturday, March 20, 2010


बहन के

नाम एक

भाई की पाती
बहन के नाम लिखा गया यह एक भाई का खत है. मजमून पढ़ा तो समझ में आया कि खालिस इश्क के मायने क्या है. एक एक जुमला मोहब्बत की चाशनी में लपेटा हुआ. पढऩे से समझ में आया कि रिश्तों की कोई जात नहीं होती. इसमें कोई छोटा या बड़ा नहीं होता. अगर कुछ होता है तो वह है सिर्फ अदब और आदाब. इस लेटर को हूबहू पोस्ट कर रहा हूं. अच्छा लगे तो कमेंट जरूर करिएगा....

आदरणीय सना बाजी
सलाम

बज्जो कैसा अजीब सा लगता है कि आज आप की निकाह क्या हो रही है कि आप मेरी बज्जो से बाजी बन बैठीं. यकीन ही नहीं हो रहा है कि हमारी बज्जो इतनी बड़ी हो गयी है कि वह निकाह कूबूल कर रुखसती को तैयार हो जाए. मेरे लिए यह एक अजीब सी खुशी और गम का पल है. खुशी इस लिए की आज हमारी बहना निकाह लायक हो गयी और गम इस लिए की रुखसती के बाद वह एक ऐसे शहर में रहेगी जो हमारे चक्रमण के रूट में नहीं आता. अब तक हमारे नक्शे में राजस्थान में सिर्फ ख्वाजा गरीब नवाज के शहर अजमेर का नाम ही दर्ज था, पर अब कहना पड़ेगा की हमारे तालुकात जोधपुर से भी हैं. बहरहाल बज्जो मुझे आज अपने बचपन के एक-एक लम्हे की याद आ रही है. कैसे हम लोग ईद-बकरीद, होली-दीवाली, रजब की दसवीं तारीख और गणपति के दिन एक ही दस्तरख्वान पर खाना खाते थे. रमजान के पाक महीने में अफ्तार करते थे. इस अफ्तारी का हमें अर्से से इंतजार रहता था. याद है उस दिन हम लोग रोजा भी रखते थे. बज्जो मुझे वह सब आज भी याद है कि पापा की डे ड्यूटी के वक्त शनिवार के दिन मैं कैसे आपके और भाई के साथ दिन गुजारता था. लक्ष्मी पार्क बिङ्क्षल्डग के पीछे पहाड़ी पर खेलने जाना, साइकिल चलाना, क्रिकेट खेलना सब कल की बात लगती है. आप लोगों की और मेरी साइकिल की खरीद के वक्त हमने कैसे इडली खायी थी. आपको शायद याद होगा कि सेन्ट एलॉयशिस में हम कैसे साथ में स्कूल जाते थे. इसके बाद जॉन ट्वेंटी थर्ड में मेरे और भाई के एडमीशन के बाद पापा और फूफाजी ने कितनी तरकीबें लगाकर आप का एडमीशन कराया था. सिस्टर रेबेका के सामने आपका किया ड्रामा पापा को आज भी याद है. हो सकता है किसी के लिए यह सब बीता हुआ कल लगे पर हमें तो आज तक अपने साथ लगातार चल रहा एक ऐसा सिनेमा लगता है जिसका कोई इन्टरवेल या दी एण्ड नहीं होता. सिनेमा के नाम पर वसई जा कर जुरासिक पार्क देखना हम कभी न भूल सके . बज्जो कैसे बताऊं कि हमें बनारस लौट आये एक अर्सा बीत चुका है पर मेरे दिल में आपकी और मोहतरम भाई की पैठ आज भी वैसी ही गहरी बनी हुई है. किसी बात पर भाई का गुस्साना फिर बाद में आपका उनको समझाना आज जब भी याद करता हूं तो मेरे दिल में गर्व का भाव आता है कि सना हसनैन मेरी आपा है. आपको शायद यकीन न हो की मेरी बातें सुन-सुन कर सृष्टिï भी आपके प्रति एक अदब का जज्बा रखती है. मेरा मानना है कि यह सब मौला का करम है कि हम सब ने एक ऐसी परवरिश पायी जहां नफरत के लिए कोई जगह नहीं है. मिर्जा और गोकर्ण परिवार के बीच रिश्तों की जो डोर बंधी है वह सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत के ताने से बुनी हुई है. हमारे रिश्तों का आधार वो संस्कार है जो हमें अपने बुजुर्गों से मिले. मंत्रों के साथ हमारा दोआ पढऩा, जनेऊ के साथ ताबीज पहनना, तस्बीह फेरना और नमाज के बाद गणपति बप्पा के जुलूस में शिरकत करना हमें लाखों-करोड़ों दुनियावी लोगों की भीड़ से अलग करता है. हो सकता है की हमारे विचारों को सुन कर लोग हमें मजहबी कहने की चूक कर बैठें, पर यकीन मानो हमारी यह अकीदत रूहानियत से ताल्लुकात रखती है. और यह हमें ता जिन्दगी गुमराह होने से रोकेगी.बज्जो मौला के प्रति अकीदत का यह भाव हमें सी-201 से मिला जिसे हमारे पीर साहब ने परवान चढ़ाया. तुम्हें मैं कैसे यह बताऊं की आज दीवानगी के जिस आलम में मैं और मेरा परिवार जी रहा है (जिस पर हमें गुरुर है) वह सब पूज्य दद्दा, फूफाजी और बुआजी की ही देन है. बहरहाल बज्जो आज जब आप निकाह कुबूल फरमाने जा रही हैं तो आपसे यह गुजारिश है कि आप दूल्हे भाई मुस्तफा जैदी साहब को हम सब के बारे में बताइएगा. आप उन्हें यह बताइएगा की मेरे और आप के परिवार के दरम्यान यह जो रिश्ता है वह मौला-ए-कायनात की तरफ से हमें दिया गया एक अजीम तोहफा है, जिस पर हम रश्क करते हैं. उन्हें वो वाकयात बताइएगा जिसने इस रिश्ते को परवान चढ़ाया. आप कोशिश करीयेगा की वर्दी वाले हमारे दूल्हे भाई हमारे ही रंग में इतने ढल जाएं की हम जब भी उनसे मिलें तो इस बात का अहसास तक न हो की हम पहले कभी मिले ही नहीं. वैसे मुझे इस बात का इलहाम है कि हमारे मुस्तफा भाई भी हम जैसे ही होंगे तभी उन्होंने हमारी आपा को पसन्द किया. अब आपसे एक और गुजारिश है कि आप जल्द से जल्द बनारस आने का प्रोग्राम बनाएं. हमारे गरीब खाने का हर मेम्बर आपके इस्तेइकबाल को बेताब है. अब जरा अपने प्यारे मोहम्मद भाई को भी पूछ लूं, वरना वह जब भी मुझसे मिलेंगे तो यही कहेंगे, अबे बज्जो के चमचे मुझे सलाम नहीं ठोकेंगा. पूज्य दद्दा, फूफाजी, बुआजी को सादर चरण स्पर्श और मेरे प्यारे भाईजान को आदाब. निकाह में शामिल न हो पाने का मुझे हमेशा मलाल रहेगा. यकीन है कि मेरी गैरहाजिरी को आप माफ करेंगी और एग्जाम के लिए मेरी हौसला आफजाई करने के वास्ते खत जरूर लिखेंगी. याद रहे की 27 दिसम्बर को मेरी बर्थ डे है. अन्त में अपनी बज्जो को एक बार फिर अदब से झुककर सलाम. मालिक हमारे परिवार की मोहब्बत को इसी तरह जन्म-जन्मांतर तक बरकरार रखे. इसी दोआ के साथ खुदा हाफिज.
आपका अनुज
चिन्मय गोकर्ण

Saturday, February 13, 2010

... के घर कब आओगे




बॉर्डर फिल्म के गाने की यह लाइन पुरानी लग रही होगी पर इस एक खबर के साथ बिल्कुल मौजूं लग रही है. वो अपने घर वापसी के लिए किससे इंस्पायर हुए यह तो हमें नहीं मालूम पर वे वतन वापसी के लिए अपना सामान समेट रहे हैं. जनाब हम बात कर रहे हैं ब्रिटेन में काम कर रहे भारतीय मूल के 25 हजार डॉक्टर्स की. अगर हम भारत यात्रा पर आये 'ब्रिटिश एसोसिएशन ऑफ फिजिशियन्स ऑफ इंडियन ओरिजिनÓ के प्रेसिडेंट डॉ. रमेश मेहता का यकीन करें तो यूके में काम कर रहे भारतीय मूल के डॉक्टर्स मुल्क वापसी की तैयारी में है. इस वापसी की वजह कोई रिसेशन या छंटनी नहीं है सर. देशभक्ति के जज्बे के तहत वे घर लौटना चाहते हैं. सर्दी के इस सुस्त मौसम में यह एक अच्छी खबर है न? हमारे भी यही खयालात हैं. इसमें अच्छी बात क्या है जानते हैं? ये सारे डॉक्टर्स इंग्लैंड के हाई फाई हॉस्पिटल्स में काम कर रहे हैं या ट्रेनिंग पा रहे हैं. इन्हें भारत के देहाती इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की दुर्दशा की खबरें हमेशा सालती रही. ऐसे में इन्होंने एक दिन एसोसिएशन के थ्रू इंडियन हेल्थ मिनिस्ट्री से सम्पर्क किया. वहां से पॉजिटिव रिस्पांस मिलते ही अब ये स्वदेश वापसी की तैयारी में हैं.हम जानते हैं कि इतने सारे डॉक्टर्स की वापसी के बावजूद भारत के बीमार स्वास्थ्य विभाग की सेहत तुरंत सुधरने वाली नहीं है. बावजूदन इसके कहा जा सकता है कि जहां कहीं भी ये डॉक्टर्स इम्प्लायड होंगे वहां आबादी के एक बड़े हिस्से को इसका एडवांटेज तो मिलेगा ही. इस खबर का सबसे दिलचस्प पक्ष यह है कि घर वापसी की चाहत रखने वाले डॉक्टर्स में 15 हजार यूथ है. यह सोने में सोहागा जैसी बात होगी. ऐसे में हम क्या इन डॉक्टर्स से सब जानना चाह रहे होंगे कि घर कब आओगे? है न?

Friday, February 12, 2010

चश्मे मस्ते, अजबे ...


महीने भर से डाट कर पहनी जर्सी को झाड़ते हुए दीक्षित जी कुछ गुनगुना रहे थे. मैंने कान लगा कर सुनने की कोशिश की तो ऐनक को नाक पर उपर सरकाते हुए पूछ बैठे. क्यों बरखुरदार आयी बात कुछ समझ में? नहीं ना? अमां ये इश्क है ही ऐसी चीज जो किसी के पल्ले पड़ती वड़ती नहीं है. बस यूं समझो ठग्गू के लड्डू की तरह. जो खाये वो पछताये और जो ना खाये वो पछताये. मैं भी सोचने लगा यार, ये बात तो कर रहे मोहब्बत की फिर इसमें लड्डू क्या घालमेल. चलो होगा कुछ. ये जिस जमाने के हैं उस वक्त की मोहब्बत में आज जैसा लावण्य नहीं हुआ करता होगा. मैं सोचा जा रहा था और वो थे कि खालिस इंग्लिश में भारी भरकम डायलॉग्स दाग रहे थे. यू नो दिस इस अ सूफी कलाम. 'चश्मे मस्ते, अजबे गुल-ए- तराशा कर दीÓ. इस परशियन कलाम में आशिक इश्क में इस कदर डूबा हुआ है कि उसे यह जहान मस्ती का चश्मा यानि झरना नजर आता है. यार, ये आज के लोग समझते हैं कि अफेक्शन कोई मॉडर्न एरा की चीज है. अब मैं इन्हें कैसे समझाऊं कि ये लव का जो डेफिनेशन आज तुम दे रहे हो वो हकीकत नहीं है.देर तक भाषण सुनते हुए मैं भी बोर हो चला था. इंटरप्ट कर बैठा. सर, दिक्कत क्या है? फिर क्या था, सारी भड़ास बलबला कर बाहर आ गयी. मेरे भाई, मेरा इकलौता बेटा है. नाम मैंने उसका सागर इस लिए धरा कि वो दरियादिल बने. पर जानते हो वो अपना दिल ही बांटता फिर रहा है. आज वो इंस्टीट्यूट से लौटते हुए एक नयी कन्या के साथ आया. पूछ लिया तो बताया कि वो उसकी गर्ल फ्रेंड है इस बार का वेलेंटाइन उसने इसके साथ फिक्स कर रखा है. उस कन्या को मैंने नयी इस लिए कहा क्योंकि वो इस साल की उसकी सातवीं गर्ल फ्रेंड है. यार अब तुम्ही बताओ कि मोहब्बत के देवता, क्या नाम है उनका, हां वो संत वेलेंटाइन को पूजने का यही तरीका है? किसी अनवांटेड काइंड की तरह हर दो महीने बाद दोस्त बदल दो? जब तक साथ है उसे गिफ्ट दो, प्रपोज करो, इधर उधर टहला घूमा दो और उसके बाद कुट्टी कर लो. फिर उसे जिंदगी से ऐसा बेदखल करो कि उससे जुड़ी कोई याद बाकी न रह जाए और फिर ले आओ दूसरी या दूसरा फ्रेंड. नहीं, नहीं ये अफेक्शन नहीं है. यह तो 'यूज एंड था्रेÓ है. दीक्षित जब बोलते हैं तो किसी दूसरे की सुनते नहीं हैं.हां, ये सब होगा अंग्रेजों के यहां. हम उनके जज्बात की तारीफ करते हैं लेकिन हम तो इस मोहब्बत को अपनी चाशनी में लपेट कर महसूस करने के आदी हैं. कैसे कहूं कि ये इश्क खालिस रूहानी चीज है. वो उस ऑल माइटी का दिया सबसे नायाब तोहफा है जो इस दुनिया को चलाता है. इसमें जिस्म कोई वजूद नहीं होता. यह तो दो रूहों की अंडर स्टैंडिंग है. नजीर देखना हो तो हजरत निजामुद्दीन औलिया और हजरत अमीर खुसरो की बेपनाह मोहब्बत को देखो. एकदम आसमान से उतरी हुई. एक रवानगी थी, अदब था और यकीनन था जिंदगी भर साथ निभाने का वादा.और अब हम कहां आ पहुंचे हैं. साल भर में सातवीं फ्रेंड. अमां, ये मुआ फरवरी का महीना तो पहले भी आता था? यह है भी कुछ अजीब सा. जाती हुई ठंड और आता हुआ फागुन. मन में मीठी सी टीस लिए इधर उधर डोलता दिल जवां होने की कुछ ज्यादा ही फीलिंग्स देता है. दूसरों की छोड़ो गौर करो तो अपनी ही बॉडी लैंग्वेज बदली बदली सी दिखायी देने लगती है. वो क्या कहते हो तुम लोग 'एक्स फैक्टरÓ और 'केमेस्ट्रीÓ जैसे सिर चढ़ कर बोलने लगती है. अचानक कनखी दबा कर उनका यह कहना गुदगुदा गया, देखो पंडित जी, ऐसा नहीं कि यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता. हमें भी यह सब पसंद है. हम तो आज भी अपनी स्लिम ट्रिम को घुमाना चाहते हैं लेकिन क्या कहें यह हमारी कृशकाया गऊ जब देखो तब बीमार ही रहती है. घूमने का प्रपोजल रखो तो कह देगी भक! सामने खड़े ये कहते हुए दीक्षित जी खुद ऐसे लजा रहे थे जैसे छुई मुई हों. दीक्षित जी बोले चले जा रहे थे और मैं चार्वाक को फेल करती उनकी फिलॉसफी में गहरे और गहरे डूबता चला जा रहा था. कॉन्शस को सब कॉन्शस समझाने में लगा था, देखो दरअसल लव अफेक्शन के प्रति यह सोच किसी अकेले दीक्षित जी की नहीं है. यह फिलॉस्फी एक पूरी जेनरेशन की है. वो आज के यूथ से अलहदा सोच नहीं रखती. उनके मन में भी प्रेम का वही भाव है. वह परेशान है इस बदलते भाव के बेअंदाज रवैये से. वह प्रेम को किसी डे या वीक में बांधे जाने से दुखी है. इश्क तो सतत प्रवाहमान वह दरिया है जिसका कोई ओर छोर नहीं. अचानक टूटती हुई तन्द्रा में लगा कोई कुछ कह रहा है. देखा तो दीक्षित जी गुनगुना रहे थे...ऐसा जाम दे कि मुझे खुमार आ जाए.ऐसा जाम दे कि मुझे खुमार आ जाए.मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं.मैं यार की मस्त आंखों का आशिक हूं.दे दे ऐसा जाम के मुझे खुमार आ जाए.तेरी आंखें जिनसे बाग-ए-खुतन में रौनक है.तेरा चेहरा जिससे चमन के गुलाब में रौनक है.फूल सा चेहरा जिससे पत्ता पत्ता महकता है, यार का वतन लालजार है.ऐसी मोहब्बत को सलाम करने का जी चाहता है. है ना?

Thursday, February 11, 2010

उफ ! ये नफरत...

असंतोष या विचारों में फर्क होना एक अलग चीज है लेकिन यह फर्क राह भटक कर अपराध की अंधेरी सुरंग की तरफ बढऩे लगे तो उसे किसी भी हालत में सही करार नहीं दिया जा सकता. चर्चित रुचिका केस के एक्यूस्ड एसपीएस राठौड़ को चाकू मारे जाने का मामला ऐसी ही कुछ बयान करने लगा है. राठौड़ को चाकू मारने वाला उत्सव शर्मा कोई जनरल स्टूडेंट या यूथ नहीं है. वो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के फैकल्टी ऑफ फाइन आट्र्स का गोल्ड मेडलिस्ट बंदा है. घटनाक्रम के सिलसिले में फिलहाल जो बातें सामने आ रही हैं उससे पता चलता है कि सिस्टम के खिलाफ उसके मन में एक असंतोष था. इन सबके चलते वह थोड़ा उग्र या कह सकते हैं कि विद्रोही हो गया था. उसके सब कॉन्शस में लगातार द्वन्द चलता रहता था. इस कशमकश ने आज उसे एक ऐसे दलदल में पहुंचा दिया जिससे उबर पाना शायद नामुमकिन है.एक टैलेंटेड यूथ के इस अंजाम पर पहुंचने के लिए जिम्मेदार कौन है, यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है. लेकिन हम अपने आसपास दिख रहे कई उत्सव शर्माओं का क्या करें जो सोसाइटी से अपने सवालों का जवाब चाहते हैं. क्राइम, करप्शन, सैबोटाज और कॉन्सपरेंसी के चौगुटे से नफरत रखने वाले ये उत्सव कोर्ट के लचीले रवैये से भी खासे नाराज हैं. इनकी नाराजगी स्वाभाविक है. तारीखों में उलझी कोर्ट और वहां से बरी होकर निकलते आरोपी. आरोपियों की विद्रुप मुस्कान उनके विद्रोही मन की आग को हवा देने का काम करती है. कहने का मतलब अपराध की कोख एक और अपराध को जन्म देने का काम करती है. तो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपराध के इस स्रोत का मुंह ही बंद कर दें. इन्हें पनपाने वाले तमाम कारणों का ही खात्मा कर दें. अपने कानून पर भरोसा करें. बगावत की टेंडेंसी वाले लोगों को समझायें कि भइया धीरज रखो. हम जानते हैं कि यह सब इतना आसान नहीं है. लेकिन हमें यह भी यकीन है कि इस दिशा में की गयी एक पहल कई उत्सव शर्माओं को राह भटकने से रोकेगी.

हां, हमें मोहब्बत है

हेडिंग पढ़के हो गये ना परेशान? नहीं भई, किसी के साथ अफेयर वह भी इस उम्र में? तौबा-तौबा. अरे मैं अभी जिंदा रहना चाहता हूं यार. लेकिन आज आपको बताऊं, पिछले दो-चार दिनों से इस एक सेंटेंस ने मुझे अंदर से जैसे मथ डाला है. अलसुबह अखबार पढ़ते हुए एक हेडिंग पर जाकर जैसे मेरी निगाह टिक गयी. लिखा था - हां, मुझे उससे मोहब्बत है. इश्क का यह एकसेप्टेंस फ्रिडा पिंटो की तरफ से था. उसने यह कह तो दिया लेकिन उसमें एक झिझक थी. हां, देव पटेल मेरे सपनों का राजकुमार है और मैं उससे बेपनाह मोहब्बत करती हूं. इस खबर ने मुझे बॉलीवुड की किसी फिल्म की तरह फ्लैशबैक में पहुंचा दिया. देर तक एक ही खबर पर अटके देख पत्नी ने पूछ ही लिया क्या बात है तबियत तो ठीक है? मैंने भी अखबार दिखाते हुए गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद के अंदाज में सवाल दाग दिया, इतनी देर कर दी रहनुमा आते आते?पत्नी भी कम नहीं, उसने तुरंत तथागत का चोला ओढ़ते हुए कहा जानते हो वत्स इसकी असली वजह है संकोच. यह देव पटेल और फ्रिडा पिंटो की ही नहीं इस पूरे इंडियन सब कॉन्टीनेंट की यूनिवर्सल प्रॉब्लम है. यहां का जीव बेहद संकोची होता है. वह वेस्टर्नाइज चीजें पसंद करता है. उसके हावभाव अपनाता है. स्टाइल मारने में भी वह भी किसी ब्रिटिश या अमेरिकन को कॉपी करता है लेकिन एक चीज है जो उसे सबसे अलग रखती है और वो है पर्देदारी. पत्नी एक्स्टएम्पोर बोले जा रही थी और मैं योग्य शिष्य की तरह सुने जा रहा था. जानते हो यह पर्देदारी काहे की है. इसमें एक हया है, एक लिहाज है, और है एक अदब. किसी जिज्ञासु की तरह मैंने फिर एक सवाल दाग दिया. तो क्या उन्हें इसके पहले इश्क नहीं था? अगर था तो वो इतने लम्बे समय तक क्यों छिपाये रहे? देखो यह हमारे संस्कारों में नहीं है. ह्यूमन साइको के बेस पर हम कह सकते हैं कि देव और फ्रिडा के बीच पहली नजर में ही प्यार हो गया था. ब्रिटेन में पलने बढऩे से हर कोई अंग्रेज थोड़े हो जाता है. शायद यही वजह है कि देव और फ्रिडा ने इश्क के इस अहसास को भरपूर महसूस किया उसकी सोंधी खुशबू को गमकाया और तब जाकर कहा, हां हमें मोहब्बत है. अब तुम्ही सोचो न यह कोई आमिर खान और उर्मिला मातोंडकर की मुम्बइया फिल्म 'रंगीलाÓ की कहानी तो है नहीं जो 70 एमएम पर देखे और फिर भूल गए. यह रियल लाइफ की स्टोरी है. इसमें जो कहा जाता है उसके बहुत मायने होते हैं. इसके अलावा यह सेलेब्रेटी लोगों की दुनिया है यहां बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती. ऐसा क्यों है? देखो यह जो इश्क है ना, वह स्प्रिचुअल चीज है. यह आम दुनियावी लोगों के पल्ले नहीं पड़ती. इसीलिए देखते होगे एक दूसरे को चाहने वाले दो जवां दिलों के ढेर सारे विरोधी होते हैं. कह सकते हो कि जिसने इश्क की तासीर को महसूस किया वो इस दुनिया के काबिल नहीं रहता. वह अपनी ही दुनिया में डूबता उतराता रहता है. अब तुम फिर सोच रहे होगे कि यार इतनी सी बात को कहने में इत्ती देर. दोस्त इसकी वजह भी हमारा हिन्दुस्तानी संस्कार है. यहां किसी से अफेक्शन कंसीव करना आसान है पर उसे एक्सप्रेस करना बेहद मुश्किल. इसमें बहुत सी बातें हैं जो रोड़े अटकाती हैं.एक और खासियत हम हिन्दुस्तानियों की है. हमारे मन में लेडीज के प्रति एक अलग जज्बा है और एक खास अदब है. यह अदब और जज्बे का भाव ही हमें किसी से अपने अफेक्शन का ऐलान करने से रोकता है. यह अदब अपोजिट सेक्स से रिश्ते को एक गरिमा देता है. तमाम शिकवा शिकायतों के बावजूद एक इंडियन कपल रिश्तों की डोर को टूटने से हर हाल में बचाता है. वह अपने मसलहतों को बेदर्द कानून के दायरे के बजाय आपस में मान मनुहार से सुलझाने में ज्यादा भरोसा करता है. यही सारी वजहें है जो भारतीय जोड़ा अपनी मैरिज की गोल्डन एनिवर्सरी मनाता है जबकि वेस्टर्न कंट्री का बाशिंदा अपने पार्टनर के नम्बर गिनने में ही जिंदगी काटता है.पत्नी चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी और मैं अपने ही ख्यालों में गहरे और ज्यादा गहरे डूबता चला जा रहा था. उठे हुए हाथ सलाम किये जा रहे थे, भारतीय संस्कारों को, शर्मो हया को, लिहाज को और अदब को. अचानक जैसे एक सपना टूटा और ये आवाज आयी ऐ मोहब्बत तू जिंदाबाद.