Saturday, June 12, 2010


मैं खयाल हूं किसी और का...

मैं खयाल हूं किसी और का, मुझे सोचता कोई और है
सरे-आईना मेरा अक्स है, पसे-आइना कोई और है
मैं किसी की दस्ते-तलब में हूं तो किसी की हर्फे-दुआ में हूं
मैं नसीब हूं किसी और का, मुझे मांगता कोई और है
अजब ऐतबार-ओ-बे-ऐतबार के दरम्यान है जिंदगी
मैं करीब हूं किसी और के, मुझे जानता कोई और है
तेरी रोशनी मेरे खद्दो-खाल से मुख्तलिफ तो नहीं मगर
तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है
तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं
तेरी दास्तां कोई और थी, मेरा वाकया कोई और है
वही मुंसिफों की रवायतें, वहीं फैसलों की इबारतें
मेरा जुर्म तो कोई और था, पर मेरी सजा कोई और है
कभी लौट आएं तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुईं,कि ये रास्ता कोई और है
जो मेरी रियाजत-ए-नीम-शब को सलीम सुबह न मिल सकी
तो फिर इसके माअनी तो ये हुए कि यहां खुदा कोई और है
-सलीम कौसर

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